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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 85 "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं।” (पृ. १०६-१०७) कवि इस तथ्य को यहीं तक लाकर चुप नहीं हो जाता अपितु उसे और गहराई तक पहुँचाता है । इसी के साथ साहित्य-बोध और शब्द-बोध की गहराई को भी व्यक्त करता है। साथ ही बोध के शोध की स्थिति को भी निरूपित करता है । वह इस प्रकार है : "बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है।/बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है/ फूल का रक्षण हो/और । फल का भक्षण हो;/हाँ ! हाँ !!/फूल में भले ही गन्ध हो/पर, रस कहाँ उसमें! फल तो रस से भरा होता ही है,/साथ-साथ/सुरभि से सुरक्षित भी"!" (पृ.१०७) द्वितीय पद के अन्त में कवि आचार्यश्री ने जीवन के गहन सूत्र का भाष्य अत्यन्त सरल एवं मार्मिक ढंग से किया है। जीवन के सम्पूर्ण क्रम को सार रूप में दे दिया है। जीवन का मूल है जन्मना, विकसित होना एवं मरण । यह क्रम स्थिर है, निश्चित है तथा इससे कोई भी वंचित नहीं रह सकता । कवि आचार्य विद्यासागरजी ने इसे अपनी कृति के माध्यम से यों व्यक्त किया है तथा सामान्य जन को भी सुलभ रूप में समझ में आ जाय, ऐसी विवेचना प्रस्तुत की है जो काव्य के महत्त्व को द्विगुणित करता है : “ 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्/सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा/सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है, जिसमें/भूत, भावित और सम्भावित/सब कुछ झिलमिला रहा है, तैर रहा है/दिखता है आस्था की आँखों से देखने से !" (पृ.१८४) कवि आचार्यश्री ने इस तथ्य का व्यावहारिक भाषा में यों अनुवाद प्रस्तुत किया है, जो भावानुवाद है : “आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य !" (पृ.१८५) इस प्रकार आचार्यश्री ने द्वितीय पद में साहित्य-बोध के विभिन्न पक्षों के साथ दर्शन के मूल को भी निरूपित किया है-सामान्य जन की भाषा में, जो सहज, बोधगम्य है तथा मनुष्य के समझ की सीमान्तर्गत भी है। पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन : आचार्यश्री विद्यासागरजी ने तृतीय पद के माध्यम से जीवन के सत्य को उद्घाटित किया है। सत्य ही पुण्य का दाता है और पाप का प्रक्षालन करने में सक्षम है। सत्य जीवन के मूल को निर्मल करता है और सत्पथ की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है । कवि ने प्रस्तुत पद का प्रारम्भ किया है प्रकृति के अपरिमेय, अपार पक्ष से। जो चारों ओर फैला हुआ है एवं धरती के वैभव को बहा-बहा कर ले जाता है-वह है जल, जिसे हम विशिष्ट और प्रभावी रूप में जीवन भी कहते हैं । कवि ने पर-धनहरण की बात कह कर रत्नाकर के मूल को उच्छेदित कर दिया है
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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