________________
84 :: मूकमाटी-मीमांसा
"जलतत्त्व का स्वभाव था-/वह बहाव/इस समय अनुभव कर रहा है ठहराव । माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ/नव-प्राण पाया है, ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है। अस्थिर को स्थिरता मिली/अचिर को चिरता मिली नव-नतन परिवर्तन..!" (पृ. ८९)
यह है तत्त्व के साथ तत्त्व सम्मिलन का रूप और उससे किस प्रकार नव ज्ञान की प्राप्ति होती है, इसका उल्लेख कवि आचार्यश्री ने किया है । कर्म और ज्ञान की सम्प्राप्ति के निमित्त मानव-मन किस प्रकार बल प्राप्त करता है, इसका विवरण कवि ने यों दिया है :
"कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं और/काम के दास होते हैं।
हम बलवाले हैं/राम के दास होते हैं और/राम के पास सोते हैं।” (पृ. ९२) इसी सन्दर्भ में कवि ने प्रकृति के साथ पुरुष की चर्चा करते हुए मोक्ष ओर मोह में भ्रमने की सत्यता को समझा दिया है। वह इस प्रकार है:
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है ।/और/अन्यत्र रमना ही
भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) इसी के साथ कवि ने साधक की स्थिति को चित्रित किया है, साथ ही साहित्य के मर्म को भी अनेक तथ्यों के माध्यम से समझाया है। इतना ही नहीं, आचार्यश्री ने कई गूढ़ तथ्यों को भी अत्यन्त सरल शब्दों में भाषा के चमत्कारी माध्यम से सहजता के साथ समझाया है । जीवन के मर्म को निरूपित किया है । द्वितीय पद में शब्दों के सहज और सरल अर्थ अभिव्यक्त करते हुए साहित्यिक बोध की स्थिति तथा शब्द-ब्रह्म के महत्त्व को प्रभावी ढंग से निरूपित करते हुए मानवीक्रम के उच्च पद की स्थिति को व्यक्त किया है। कवि के मर्म की स्थिति द्रष्टव्य है :
“अति उदासीन अनल-सम/क्रोध-भाव का शमन हो रहा है। पल-प्रतिपल/पाप-निधि का प्रतिनिधि बना प्रतिशोध-भाव का वमन हो रहा है।/पल-प्रतिपल पुण्य-निधि का प्रतिनिधि बना/बोध-भाव का आगमन हो रहा है,
और/अनुभूति का प्रतिनिधि बना/शोध-भाव को नमन हो रहा है
सहज - अनायास ! यहाँ !!" (पृ. १०६) कवि आचार्य ने बोध की स्थिति को अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से शब्द क्रम की गहराई को निरूपित करते हुए विवेचना की है। इसी के साथ शब्द और बोध की ऐकान्तिका का निरूपण करते हुए बोध के अस्तित्व को शोध की निराकुलता के साथ पुष्ट करते हुए फल और फूल की स्थिति को प्रकृति की रम्यता और सरसता के साथ व्यक्त किया है-भाव-बोध सह । कवि आचार्यश्री विद्यासागरजी ने इसे यों व्यक्त किया है :