________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 83
आधार लेना आवश्यक है, उन्हीं क्रियाओं के माध्यम से जीवन क्रम का भी शुद्धीकरण होता है । कवि और आचार्य सन्त ने माटी के संकर रूप को परिष्कृत करने का विवरण सरल भाषा में देते हुए शब्द ब्रह्म की स्थिति को भी स्वीकारा है। 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' की बात कही है । कवि आचार्य ने वर्ण का आशय यों समझाया है :
"इस प्रसंग से/वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से वरन्/चाल-चरण, ढंग से है ।/यानी!/जिसे अपनाया है उसे/जिसने अपनाया है/उसके अनुरूप/अपने गुण-धर्म
"रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा/वरना
वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा।” (पृ. ४७-४८) कवि आचार्य की विचारणा यहाँ तक समुचित है, परन्तु मैं एक तथ्य और इसी सन्दर्भ में स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। वर्ण अक्षर होते हैं। अक्षरों का अपने आप में शुद्ध और परिष्कृत क्रम है । क्रम ध्वनिमय होता है, अत: वर्ण ध्वनि रूप है। ध्वनि अपने रूप में शुद्ध एवं निर्मल है । कुम्भकार माटी को विभिन्न क्रियाओं के द्वारा शुद्ध एवं निर्मल करता है तथा उसे संकर दोष से मुक्त कर मृदु और शुद्ध रूप प्रदान कर देता है । इस प्रकार माटी अपने मूल रूप को प्राप्त करती है और उसे वर्ण-लाभ प्राप्त होता है । वर्ण-लाभ की स्थिति को प्राप्त होते ही उसमें ध्वनि तत्त्व अर्थात् आकाश तत्त्व सन्निहित हो जाता है । यह जीवन का क्रम प्रारम्भ होने की स्थिति है। कवि आचार्य विद्यासागरजी ने रसा और आकाश-इन दो तत्त्वों के सामंजस्य की स्थिति को निरूपित करते हुए जीवन के सृजनशील रूप को अभिव्यक्त किया है। इसकी सृजनशीलता का प्रवाह द्वितीय खण्ड में विश्व के अन्य तत्त्वों के सामंजस्य को अपने साथ लेता हुआ जीवन के सम्पूर्णत्व को व्यक्त करने के साथ जीवन के सत्त्व गुणों को व्यक्त करता है। शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं : इस पद के माध्यम से कवि ने निर्माण क्रिया को आत्मशोध से जोड़ते हुए सतत क्रम को निरूपित किया है। निर्माण का क्रम प्रारम्भ होता है और जीवन की स्थिति को समझने का क्रम भी प्रारम्भ होता है । जीवन में किस प्रकार रहना चाहिए इसका निरूपण आचार्य कवि ने अत्यन्त सुन्दर ढंग से किया है। शिल्पी कुम्भकार माटी को मृदु और निर्मल बनाने के साथ उसमें प्राण संचार करने की ओर अग्रसर होता है । उसे कवि आचार्य ने अत्यन्त सरल एवं भावमय शब्दों के माध्यम से समझाया है :
"लो, अब शिल्पी/कुंकुम-सम मृदु माटी में/मात्रानुकूल मिलाता है छना निर्मल-जल ।/नूतन प्राण फूंक रहा है/माटी के जीवन में करुणामय कण-कण में,/अलगाव से लगाव की ओर
एकीकरण का आविर्भाव।" (पृ. ८९) कवि ने मात्रानुकूलता के माध्यम से जीवन में कर्म करने की ओर स्पष्ट संकेत किया है। यहाँ कवि ने 'कर्मसंयोग' का सिद्धान्त प्रतिपादित करने का तथ्य वर्णित किया है । कवि ने जल तत्त्व के स्वभाव को व्यक्त करने के साथ जीवन के मूल को समझने के लिए किस प्रकार ठहराव को भी स्वीकार करना चाहिए, इसे भी अभिव्यक्त किया है। साथ ही ऐसा करने से किस प्रकार नव प्राण प्राप्त होता है और नव ज्ञान प्राप्त होता है, इसका उल्लेख सहज रूप में किया है जो सामान्य जन को भी बोधगम्य है :