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________________ 82 :: मूकमाटी-मीमांसा क्रम को ही स्पष्ट करती है- वह है, किस प्रकार दीक्षा के प्रति सजग होना एवं उसके माध्यम से किस प्रकार विश्वकल्याण का पथ अपनाना । आचार्य विद्यासागर ने अपनी कृति 'मूकमाटी' की कथा चौपदों के अन्तर्गत व्यक्त की है- इसे मैं चौ-पद ही कहना चाहता हूँ। कारण, चौ-पद-चारों ओर की स्थिति को निरूपित करता है तथा विषय के चतुर्दिक रूप को भी व्यक्त करने में सक्षम है । यही कारण है कि आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' को चौपदों- यथा, एक'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; दो-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं: तीन-'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और चार-‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । प्रस्तुत चार बोधपक्षों के माध्यम से सम्पूर्ण कथा का पुष्टीकरण हुआ है एवं जीवन को एक निश्चित परिणाम प्रदान किया है। मैं. प्रथमत: कथानक के रूप में चारों पदों का संक्षिप्त विवरण देता हूँ, ताकि कृति के मूलार्थ को समुचित रूप में समझा जा सके। संकर नहीं : वर्ण-लाभ : यह 'मूकमाटी' का प्रथम पद है। प्रथम पद का नामकरण कवि ने जिस विचार से किया है, वह तो मैं कह नहीं सकता, परन्तु मैं, मेरी दृष्टि से कह सकता हूँ कि कवि का मन्तव्य है विभिन्न क्रमों से युक्त । अर्थात् अत्यन्त मिला हुआ, जिसे प्रयत्नपूर्वक ही पृथक् करना पड़ता है। वर्ण का जहाँ तक सम्बन्ध है, वह अपने आप में स्वतन्त्र है तथा प्रत्येक वर्ण मूल रूप में स्वच्छ एवं निर्मल है। संकर मिश्रित होने के कारण शुद्ध नहीं हो सकता। अत: आचार्य कवि सर्वप्रथम इस कर्म की ओर बढ़ते हैं कि जीवन क्रम शुद्ध और निर्मल हो जाय । प्रस्तुत पक्ष को ध्यान में रखते हुए कवि आचार्य ने अपनी कृति का प्रथम पद-'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' नामकरण से प्रारम्भ किया है । इसी भावबोध के साथ 'मूकमाटी' काव्य की कथा प्रारम्भ होती है । माटी मूल रूप में माटी होते हुए भी उसमें बहुत कुछ मिला रहता है। कंकर-कण के साथ और जो कुछ भी मिश्रित हो सकता है, वह माटी में मिला रहता है। कवि आचार्य ने माटी को लक्ष्य करके, उसके शुद्धीकरण का क्रम निरूपित किया है। इस क्रम को निरूपित करते समय कवि-कल्पना निर्मल भाव-बोध को विस्मृत नहीं होने देती। कवि माटी के संकर रूप को परिष्कृत करने के साथ, वर्ण-लाभ की बात को हमारे समक्ष उभार कर लाता है। प्रथम पद का प्रारम्भ कवि ने नियामक प्रकृति को आधार बनाकर ही किया है, जो यों उद्भूत हुआ "सीमातीत शन्य में/नीलिमा बिछाई,/और इधर "नीचे निरी नीरवता छाई,/निशा का अवसान हो रहा है उषा की अब शान हो रही है/भानु की निद्रा टूट तो गई है परन्तु अभी वह/लेटा है/माँ की मार्दव-गोद में, मुख पर अंचल लेकर/करवटें ले रहा है।" (पृ. १) प्रकृति के साथ जीवन का संसर्ग कितना मोहक होता है और किस प्रकार मानव प्रात: की स्वर्णिम किरणों के पदार्पण के साथ अपने जीवन-क्रम की ओर अग्रसर होने को तत्पर होता है । इस प्रकार कवि आचार्य ने एक साथ अपनी कृति के मूल अस्तित्व को भी हमारे समक्ष निरूपित कर दिया है-महाकाव्य के रूप में एवं जीवन की नित्य क्रियाओं के रूप में भी। इतना ही नहीं, कवि जीवन की अस्मिता को कर्म के साथ सन्निहित करते हुए सत्कर्म की ओर किस प्रकार बढ़ना चाहिए, इसका तात्त्विक विवरण भी देता है । यह क्रम कवि माटी और उसका अपने जीवन के लिए प्रयोग करने वाले कुम्भकार के कर्म से देना प्रारम्भ करता है। कहने को तो अत्यन्त सरल बात है, परन्तु माटी का परिष्करण ही जीवन के परिष्करण को स्पष्ट रूप से हमारे समक्ष उपस्थित करता है। माटी को शुद्ध रूप में लाने का कार्य कुम्भकार प्रथमत: करता है, तदनन्तर उससे जीवनावश्यक वस्तुओं का निर्माण करता है । इस पद के माध्यम से कवि आचार्य ने जीवन शुद्धीकरण का मार्ग विवेचित किया है । माटी को निर्मल और शुद्ध रूप प्रदान करने के लिए जिन क्रियाओं का
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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