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मूकमाटी-मीमांसा :: 81 क्रियाएँ सन्निहित रहती हैं और किस प्रकार वह अपने कर्म के माध्यम से उच्च पथ का पथिक बन जाता है, ऐसे क्रम को विवेचित करने के लिए कथा का आधार स्वीकार करना ही पड़ता है। 'मूकमाटी' का कथानक क्या है - इस सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व मैं यह समझाना आवश्यक समझता हूँ कि 'कथा' से हमारा क्या तात्पर्य है ?
मानव-विकास के सिद्धान्त की ओर ध्यान देते हैं तो ज्ञात हो जाता है कि प्रारम्भ में मानव कुछ भी नहीं समझता था। वह धीरे-धीरे क्रमश: अपने आस-पास के वातावरण को समझने लगा था । तदनन्तर उसे ध्वनियों का ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने उन ध्वनियों के माध्यम से अपनी विचारणा प्रस्तुत करने का क्रम प्रारम्भ किया था । कालान्तर में मानव ने शब्द और वाणी के सहयोग से जीवन-पथ पर अग्रसर होना प्रारम्भ किया था। यही क्रम विकसित होते हुए काव्य की स्थिति को प्राप्त कर सका है। इसमें एक बात महत्त्वपूर्ण रही है - वह है, मेरे साथ अन्य की स्थिति का होना । अन्य की स्थिति के अभाव में कुछ भी कहना व्यर्थ है, निरर्थक है । यही तथ्य कथा के सम्बन्ध मान्य किया जा सकता है। कथा भी इसी भावार्थ को सन्निहित किए है। कथा के मूल में 'कथ्' है - यह संस्कृत की धातु है । कथा की व्युत्पत्ति इसी से मान्य की गई है, जिसका साधारण अर्थ है - 'वह, जो कहा जाता है ।' जब मैं विचार करता हूँ तो सहज में ही स्वीकार करना पड़ता कि मैं कुछ भी कहता हूँ तो उसकी सार्थकता अन्य के कारण ही है अर्थात् मेरे अतिरिक्त अन्य की स्थिति नितान्त आवश्यक है। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अवश्य ही सुनने को तत्पर हो। इस प्रकार कथा एक से अधिक की स्थिति को स्वीकार करती है, जो जीवन का मूल पक्ष है । एकान्त जीवन नहीं है । साथ होना जीवन का प्रतीक है। Antar साहित्य की ओर ध्यान देने पर यह सिद्ध हो जाता है कि वह एक से अधिक के प्रति ही आसक्त है। एक का वहाँ कोई अस्तित्व नहीं है । 'मूकमाटी' आचार्यश्री के विचारों का स्पन्दन है और जीवन के भोग का अभोग रूप है, जिसे वे सबके लिए-जन-कल्याण के लिए प्रस्तुत करने को तत्पर हैं 'मूकमाटी' के माध्यम से । अतः यह स्वीकार्य तथ्य है कि 'मूकमाटी' कथामय है । अत: उसका कथानक ऐसा है जो कथा के अस्तित्व को व्यक्त करता है । यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ। मैं, कथा के साथ कहने की बात व्यक्त कर चुका हूँ। परन्तु, यह भी उतना ही सत्य है कि जो कुछ कहा जाता है वह कथा नहीं होती। हम सब आपस में अनेक प्रकार की बातचीत करते हैं, उन सबको कथा नहीं कह सकते । अतः कथा उसे स्वीकार करना होगा, जो किसी घटना के क्रम को निरूपित करे और समर्पक ढंग से निश्चित परिणाम को भी व्यक्त करे । भारतीय दर्शन में व्यक्त विचारों की ओर ध्यान देने पर ज्ञात हो जाता है कि जड़चेतन दोनों ही समान रूप से अपने पक्ष को अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार व्यक्त करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है ि घटना संसार में स्थित किसी भी वस्तु से सम्बन्धित हो सकती है, यथा - मनुष्य, जीवधारी अन्य पशु, पक्षी आदि एवं संसार के अन्तर्गत उपलब्ध नाना प्रकार के पदार्थ एवं अन्य स्थितियाँ, जिनका अनुभव कल्पना के आधार पर भी किया जा सकता है | स्पष्ट है कि कथा घटनाबद्ध होनी चाहिए तथा परिणाम प्राप्त कराने में सक्षम होनी चाहिए ।
कथा को समझने के पश्चात् कथानक को भी ज्ञात करना आवश्यक है । सम्पूर्ण कृति की कथा, कथा है और उसे संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर देना उसका कथानक है। सीधे-सादे अर्थ में समझना हो तो कह सकते हैं कि कथा घटनाओं का कालानुक्रमिक वर्णन है, जिसमें कार्य - कारण - सम्बन्ध की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, उसमें असम्बद्धता नहीं आनी चाहिए। परन्तु, इसी के साथ कथानक में समय की स्थिति को घटनावली खोलती है तथा संसार की युक्तियुक्त संघटना को भी कार्य-कारण के अन्त: सम्बन्ध के आधार पर अभिव्यक्त करती है । कथानक इस प्रकार बुद्धिगम्य है। कथा कथा की तरह अपने में, मूल रूप में स्थित रहती है। आचार्य विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' की ओर ध्यान देने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें घटनावली का क्रम संसार की युक्तियुक्त स्थिति को निरूपित करने में सक्षम है एवं घटना कालानुक्रमिक दृष्टि से परिणाम प्राप्त कराती है । इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य विद्यासागर की कृति एक निश्चित