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मूकमाटी-मीमांसा :: 79
समझ में आ ही जाता है कि आकार धारण करने की शक्ति केवल माटी में है और अन्य तत्त्व उसे अपनी शक्ति से परिचालित करते हैं, जिसका परिणाम होता है-सजीवता ।
पंच तत्त्वों में आकार ग्रहण की क्षमता से माटी पुष्ट है, अन्य तत्त्व उसके सान्निध्य में रहकर जीवन के जीवन्त पक्ष को उजागर करते हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि माटी श्रेष्ठ या अन्य तत्त्व श्रेष्ठ ? यह प्रश्न इन तत्त्वों से किया जाय तो हमें यही उत्तर मिलेगा कि हम सब बराबर हैं, सम हैं। हम आपस में ऊँच-नीच या श्रेष्ठत्व का भाव नहीं रखते हैं। हम अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कार्य करते हैं और कर्म में रत रहते हैं, ताकि जीवन गर्वहीन, निर्विकल्प भाव से व्यतीत होता रहे । जीवन का सत्य तो यह है कि हम पाँचों मिलकर ही जीवन के क्रम में सन्निहित होते हैं, अन्यथा प्रत्येक अपनी-अपनी स्थिति तक ही सीमित रहता और जीवन से परे रहता । सच तो यह है कि जीव तत्त्व का महत्त्व सम्मिलन में है, पृथकत्व में नहीं। इतना सब कुछ होते हुए भी हम सब यह स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाते कि आकार ग्रहण करने की शक्ति केवल 'रसा' में है, जो माटी कहलाती है । जीवन रूप में ही निहित है, अत: उसे हम हमारा अस्तित्व स्थल मानते हैं। मुझे उस समय आश्चर्य हुआ कि 'मूकमाटी' के 'प्रस्तवन' में लिखा है : “सबसे पहली बात तो यह है कि माटी जैसी अकिंचन, पद-दलित और तुच्छ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाने की कल्पना ही नितान्त अनोखी है।" मैं समझ नहीं सका कि श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन सदृश विद्वान् ने माटी को तुच्छ कैसे मान लिया जबकि वह पंच तत्त्वों में से एक है और आकार ग्रहण की शक्ति केवल माटी में ही है। उसकी दार्शनिकता का तो विवरण इसके पूर्व आदि काल से ही ज्ञात है। यही कारण है कि महात्मा कबीर सदृश सन्त कवि ने कहा है :
"माटी कहे कुम्हार सूं, तू क्या रूंधै मोहि ।
इक दिन ऐसा आयगा, मैं सैंधूंगी तोहि ॥" इसी के साथ श्री लक्ष्मीचन्द्र जी जैन ने कहा है : “दूसरी बात यह है कि माटी की तुच्छता में चरम भव्यता के दर्शन करके उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मुक्ति की मंगल-यात्रा के रूपक में ढालना कविता को अध्यात्म के साथ अभेद की स्थिति में पहुँचाना है।"
मेरा इस सम्बन्ध में स्पष्ट मत है कि आचार्यश्री विद्यासागर ने अपने कवि-कर्म को जीवन-संगीत के ऐसे तत्त्व से सन्निहित कर अपने भाव-लोक को सहज गति से दार्शनिक तथ्यों की ओर अग्रसर किया है कि सामान्य जन भी उसकी गूढ़ता को आत्मसात् कर ले । माटी जीवन को आकार प्रदान करता है और अन्य तत्त्व जीवन्तता प्रदत्त करते हैं। इस प्रकार माटी अपने आप में सर्वश्रेष्ठ एवं अनुपम है, उसे मैं तुच्छ मान्य नहीं करता । उसमें ही सहज गति है और सजीवता को स्थान प्रदान करने की शक्ति है । परिणामतः सजीवता अपनी गति से सन्मार्ग की ओर अग्रसर होती है । आचार्यश्री ने सम्भवत: इसी क्रम को ध्यान में रखकर अपनी मूल धारणा को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया है। 'मूकमाटी' के कथ्य की
ओर ध्यान देने पर ज्ञात हो जाता है कि सम्पूर्ण काव्य प्रकृति की मूल चेतना से आप्लावित है। प्रकृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है 'माटी', जिसे ही काव्य का विषय बनाया है। जिस समय विचारक इस ओर विचार करने के लिए अग्रसर होता है तो उसे सहज में ही स्वीकार करना पड़ता है कि काव्य का आरम्भ ही प्रकृति के सान्निध्य से हुआ है। प्रकृति के कण-कण से काव्य सराबोर है । प्रकृति की चेतनता, प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण, जीवन की यथार्थता, चेतना की विशुद्ध चिरन्तनता का निरूपण करते हुए आचार्यश्री ने जीवन की पावन भाव-भूमि का अद्भुत पक्ष उद्घाटित किया है। आचार्य विद्यासागरजी की कृति 'मूकमाटी' के अन्तर्गत निहित विचार तन्तुओं के साथ काव्यात्मकता का विवेचन करने के पूर्व कृति की प्रकृति के सम्बन्ध में विचार कर लेना आवश्यक समझता हूँ।