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78 :: मूकमाटी-मीमांसा
करवट ली, जिसे हम स्वतन्त्रता कहते हैं। 'मूकमाटी' इस युग के विकास-क्रम को निरूपित करने की ओर अग्रसर हुई है, इसका ही मैं विवेचन करूँगा। 'मूकमाटी' की ओर : काव्य की क्रमागत स्थिति अपने आप में श्रेष्ठ और बन्धनमुक्त है । यह तथ्य समझ लेना भी आवश्यक है। मैं यह कहूँ कि आचार्यश्री विद्यासागर ने माटी सदृश सामान्य वस्तु पर विशाल कवित्व क्यों कर प्रस्तुत किया ? कहना ही गलत है। जीवन के क्षेत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात हो जाता है कि माटी की क्या स्थिति है और वह विश्व के तत्त्वों में किस रूप में स्वीकार्य है। इस सम्बन्ध में मैं एक घटना का उल्लेख कर देना आवश्यक समझता हूँ। मैं मॉडल मिल्स में क्लर्क था और स्नातक कक्षा में अध्ययन करता था। महाविद्यालय में तत्क्षण वक्तृत्व प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। समय सन्ध्या छह बजे से सात बजे का रहा होगा। मैं मिल्स से घर भोजन के लिए इसी समय जाता था। मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया था। उस समय मुझे मेरे एक मित्र ने पूछा था कि इसके पहले कभी कहीं पर सबके सामने खड़े होकर कुछ कहा है ? मैंने कहा- 'मैने इसके पूर्व कभी कहीं कुछ नहीं कहा और स्कूल में तो कुछ कहने का साहस भी नहीं किया था। तब उसने कहा-'दोस्त, तम निश्चित रूप से काँपते हए वापस आओगे।' मैंने कहा-'देखेंगे।' इस प्रतियोगिता का नियम होता है-अपने पूर्व बोलने वाले वक्ता के साथ वक्तव्य प्रारम्भ करने के समय विषय की चिट निकालनी पड़ती है । यह बात है ईस्वी सन् १९५६-५७ की । नाम पुकारने पर मैंने चिट निकाल ली। विषय निकला 'धूल'। धूल का अर्थ होता है 'मिट्टी'-माटी। मैंने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया था :
"अनल अनिल जल गगन रसा है/इन पाँचों पर विश्व बसा है।" परिणाम निकला था - मुझे प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। यह है माटी की महिमा कि प्रथम बार वक्तव्य देने को खड़े होने के उपरान्त भी प्रथम स्थान का अधिकारी बन गया था। उस समय मुझे अत्यधिक आश्चर्य हुआ था और मेरे मित्र की स्थिति तो अद्भुत हो गई थी। और उसे मैं कहूँगा-दर्शनीय । मैंने अनुभव किया कि पुरस्कार मुझे नहीं, उसे प्राप्त हुआ है वह आनन्द-विभोर होकर नृत्य करने लगा था। इस घटना का विवरण मैने दिया है-केवल माटी से सम्बन्धित होने के कारण। इसी के साथ मेरे मित्र के नि:स्वार्थ भाव से पुष्ट आनन्द का उल्लेख करने हेतु भी। माटी का यही तो सर्वश्रेष्ठ गुण है। वह अपने लिए नहीं-शेष सबके लिए भी है । ऐसे अद्भुत एवं महनीय तत्त्व को आचार्यश्री ने अपने काव्य का विषय बनाया है।
रसा'शब्द अर्थ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मानव का वास्तविक विकास पृथ्वी के सान्निध्य में ही हुआ है और रसा का अर्थ ही पृथ्वी है। सच तो यह है कि मानव ने काव्य-लेखन माटी की सुमधुर गन्ध के सान्निध्य में बैठकर ही प्रारम्भ किया था। जीवन का क्रम ही इससे पुष्ट है जो काव्य के परिचालन में अपने आप अनुपम है, अद्वितीय है । यही बात आचार्यश्री विद्यासागर ने अपने काव्य ग्रन्थ में कही है, जो जीवन की दृष्टि से सहज होने के साथ-साथ दर्शन पक्ष को भी निरूपित करती है । जीवन के साथ सहज गति से दर्शन का पुष्टीकरण काव्य के सौन्दर्य को द्विगुणित कर देता है। उसके लिए भी यह तथ्य आवश्यक है कि उसमें दुरूहता या जटिलता नहीं आनी चाहिए। वह सहज रूप में बोधगम्य होना चाहिए। दर्शन की पहेलियाँ बूझना उसका कार्य नहीं होना चाहिए। मैं स्पष्ट रूप से कह सकता हूँ कि प्रस्तुत कृति 'मूकमाटी' इस दृष्टि से सशक्त रचना है । मुझे यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है कि मानव-काया पाँच तत्त्वों का यौगिक रूप है और उसमें भी रसा' का अस्तित्व विशेष उल्लेखनीय है । मानव-काया का क्रम पृथ्वी तत्त्व अर्थात् ‘रसा' यानी माटी' पर ही आधारित है। इस पक्ष को न तो आचार्यश्री नकार सकते हैं और न ही विश्व का कोई अन्य प्राणी ही। उसमें मैं भी आ गया । माटी का गुण-धर्म है आकार धारण करना । यह आकार माटी का क्रम है, जिसमें विश्व के अन्य चार तत्त्व क्रमश: अपना क्रम सन्निहित करते हैं और आकार को अनेक गुणों से सम्पन्न करते हैं। इस विवरण से यह तो