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मूकमाटी-मीमांसा :: 75 "अरे पातको, ठहरो !/पाप का फल पाना है तुम्हें/धर्म का चोला पहनकर अधर्म का धन छुपाने वालो !/सही-सही बताओ,/कितना धन लूटा तुमने
कितने जीवन टूटे तुमसे !" (पृ. ४२६) इस मानसिकता का स्वामी आतंकवाद जब भी पराभूत होता है तो पुन:-पुनः भड़क उठता है, क्योंकि :
“एक बार और/उसका डर भर उठा है/उद्विग्नता से-उत्पीड़न से
और/पराभव से उत्पन्न हुई/उच्छृखल उष्णता से ।" (पृ. ४३७) उनकी धारणा यह है :
0 “आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ?/सबसे आगे मैं
समाज बाद में !" (पृ.४६१) "अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो/अन्यथा,
धनहीनों में/चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं।” (पृ.४६७-४६८) और सन्देश यह है कि जब आतंकवादी अपना अपराध स्वीकार करके समाज की शरण में आएँ तो माँ के समान समाज को उन्हें गोदी में स्वीकार कर लेना चाहिए, क्षमा कर देना चाहिए :
"तुरन्त शिशु को झेलती/ममता की मूर्ति माँ-सम
परिवार ने दल को झेला।” (पृ. ४७७) और तब होता है :
"आतंकवाद का अन्त/और/अनन्तवाद का श्रीगणेश ।” (पृ. ४७८) कवि का यह सन्देश सर्वाधिक प्रासंगिक एवं समसामयिक है । उसमें निहित सन्देश एवं दृष्टि पर्याप्त मुखर हैं। 'मूकमाटी' केवल एक महाकाव्य ही नहीं है, प्रासंगिक मूल्यों वाला साहित्यिक आधुनिक महाकाव्य है । इसका स्वागत पाठक जगत् द्वारा होना अवश्यम्भावी है।
मन्द मन्द सुगन्य पवन बह ररार; बहना ही जीवन है।