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74 :: मूकमाटी-मीमांसा
लेते हैं, समसामयिक जीवन-व्यवस्था के सन्दर्भ में उसको नवीन रूप से व्याख्यायित करते हैं और परम्परा का नवीनीकरण करके उसे प्रासंगिक व उपयोगी बनाते हैं। महाकवि तुलसी ने अपने ढंग से एक पुरातन कथा को समसामयिक सन्दर्भानुकूल बनाकर तात्कालिक जीवन स्थितियों, समस्याओं, चिन्तन को उसमें जन-कल्याण की दृष्टि से प्रस्तुत किया था और आधुनिक काल में महाकवि जयशंकर प्रसाद ने मानव की सभ्यता के विकास रूपक को प्रागैतिहासिक, प्राक्पौराणिक महाप्रलय, अवशिष्ट देव, सन्तान, उसकी इच्छा-क्रिया-ज्ञान के त्रेत के समीकरण की समस्या को कथा में पिरो कर 'कामायनी' में प्रस्तुत किया है। ये दोनों ही महाकाव्य अपने अभिव्यक्ति सौष्ठव अथवा कथाक्रम के लिए मूल्यवान् नहीं हैं। इनके मूल्य का वास्तविक आधार है इन का दर्शन, महाकवि की जीवन दृष्टि, जो विश्लेषण के मार्ग से गुज़र कर निष्कर्ष या सन्देश पर जाकर ठहराती है। महाकाव्य का महात्व' (महत्त्व) उसके ‘सन्देश' में निहित होता है।
'मूकमाटी' के सन्देश की महत्ता उसकी शाश्वतता में भी है और उसकी समसामयिक प्रासंगिकता में भी । मानव अभिशप्त है समस्या संकुल रहने के लिए। प्रकृति की ओर से ही उसे द्वेष, वैर, ईर्ष्या, अहंकार, हिंसा, शोषण आदि प्रवृत्तियाँ मिली हैं। परसम्पदा हरण, निन्दा, आत्मस्तुति, आत्मप्रतिष्ठा, षड्यन्त्र, परपीड़न, श्रेष्ठतरता का दम्भ, तुलना आदि व्यापारों में वह प्राकृतिक रूप से ही रत रहता है । इन सबके कारण जनजीवन कष्टों का आगार बना रहता है । कष्ट-मुक्ति की इच्छा और व्याकुलता भी स्वाभाविक है । परन्तु कष्टमुक्ति का मार्ग सुख-सुविधा, साधन-सम्पन्नता का चमचमाता राजमार्ग नहीं है अपितु तपस्या, समर्पण, अग्नि-स्नान का कठिन पन्थ है । संकरता, दोष, आपत्-विपद् का आगमन, इन सबसे राहित्य और मुक्ति-लाभ करके साधना, निष्ठापूर्वक शुद्धि, पवित्रता, सम्पूर्णता की ओर बढ़ने का क्रम ही तपस्या का क्रम है । यह तो सनातन सत्य है । समसामयिक सन्दर्भो में समाज एक और नए प्रकार के कष्ट से पीड़ित हो रहा है- जिसका नाम है आतंकवाद । विश्व के हर कोने में इसका उदय हो चुका है । समाज, व्यक्ति, शासन, संस्थाएँ आदि सब इससे आतंकित हैं, त्रस्त हैं और इसके आगे विवश हैं । कारण ? नवयुवा, जो अमित शक्ति, अदम्य उत्साह और अपरिसीम जोश से भरपूर होते हैं, वे समाज में प्रचलित सहज जीवन व्यवस्थाओं के परिणामस्वरूप साधना के स्थान पर रोष का मार्ग अपना बैठते हैं। स्वयं कुछ उपार्जन व सिद्धि-लाभ करने के स्थान पर दूसरे द्वारा श्रमपूर्वक उपार्जित सिद्धि, सफलता को बलपूर्वक छीन लेना चाहते हैं, और इसके लिए दल बना कर, शस्त्रास्त्रों का प्रयोग कर के, अपनी युवा शारीरिक शक्ति का प्रयोग करके वे अपने मनोरथ-सिद्धि में जुट जाते हैं। सम्पन्नों की सम्पन्नता को वे चोरी, अवैध शोषण, समाज विरोधिता आदि नाम दे-दे कर अपनी अवैध हिंसात्मक गतिविधियों के लिए एक कारण, एक उत्प्रेरक तत्त्व की रचना कर लेते हैं। और फिर सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण वातावरण असुरक्षित हो उठता है, त्रस्त हो उठता है, आतंकित हो उठता है । आज का समाज लघु-अधिक इसी मानसिकता में जीने के लिए अभिशप्त हो उठा है। 'मूकमाटी' में विशेष रूप से इस समस्या पर विचार किया गया है। दोनों दलों का मानसिक विश्लेषण करके कुछ निष्कर्षों पर पहुँचा गया है :
"यह बात निश्चित है कि/मान को टीस पहुंचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है ।/अति-पोषण या अति-शोषण का भी यही परिणाम होता है, तब/जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले का भाव"प्रतिशोध !/जो कि/महा-अज्ञानता है, दूरदर्शिता का अभाव
पर के लिए नहीं,/अपने लिए भी घातक !" (पृ. ४१८) आतंकवादियों की मानसिकता व सम्पन्न समाज के प्रति उनकी धारणा द्रष्टव्य है :