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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 73 प्रयोग की एक विशेषता विशेष रूप से ध्यातव्य है-वह है शब्द-रूप का अन्वय करके, उसके अन्तर में छिपे अर्थ स्तर का शोध-परिशोध । शब्द वास्तव में एक अर्थ का आकार ही तो होता है । शब्द निर्माण की प्रक्रिया का सही अन्वेषण भाषा वैज्ञानिकों के वश की बात भी नहीं है । 'मूकमाटी' के रचयिता ने शब्दों के अभिधेयार्थ को नहीं अपितु उसके आसपास वर्तमान अर्थ परिवेश को गहरा टटोलकर उसके सही अर्थ का निर्धारण किया है, और उसी अर्थ का प्रयोग किया है। इस क्रम में शब्दों को कहीं तोड़ा है, कहीं खण्डित किया है, कहीं उसके वर्ण-क्रम को उलटा है और कहींकहीं व-ब, र-ल, ल-ड, स-श आदि का परस्पर परिवर्तन भी किया है । इ और ई में तथा उ और अ में भी यथारुचि परिवर्तन व स्थानान्तरण किया गया है। जलधि को जड़-धी, 'अवसर' को 'अब-सर', वैखरी को 'बै-खरी', महिला को 'मही-ला' तथा इसी प्रकार अबला, सुता, दुहिता आदि शब्दों के नए व्युत्पत्त्यर्थ खोजे गए हैं। कलशी को 'कल-सी' कह कर उसका नया अर्थ किया गया है । शब्दों के रूप भी यथारुचि, यथावश्यकता बदले अथवा नए निर्मित किए गए हैं। कुछ विशेषणों में आगे ‘इम' प्रत्यय लगाकर उनके विशेषणत्व पर मानों और अधिक बलाघात दिया गया है- जैसे सरलिम, तरलिम, धवलिम...। 'मूकमाटी' 'कला कला के लिए' का काव्य नहीं है। इसकी रचना एक गहन, गम्भीर प्रयोजन की साक्षी देती है। आज के समाज, जीवन मूल्यों, जीवन व्यवहार, मनोविज्ञान, आचार-व्यवहार पर पैनी, खोजी दृष्टि डालते हुए एक कुशल वैद्य के समान रोग का निदान एवं समाधान दोनों प्रस्तुत किए गए हैं। निदान के सन्दर्भ में दृष्टि पूर्णतया यथार्थवादी है । जीवन में चहुँओर हाहाकार है क्योंकि व्यक्ति 'स्व' में स्थित नहीं है, स्वस्थ नहीं है। 'स्व' की खोज, शोध उसे नहीं है । आज का व्यक्ति 'स्व' का शोधक नहीं, 'स्व' का प्रतिष्ठापक है । वही प्रतिष्ठा उसे उपलब्ध नहीं होती बल्कि प्रतियोगिता, विरोध और खण्डन प्राप्त होते हैं। वह स्थिति उसे सहन नहीं होती और द्वेष-बैर उत्पन्न हो जाते हैं एवं बढ़ जाते हैं। पर का उत्कर्ष भी सहन नहीं होता और पराई सम्पदा को बलपूर्वक अपना बना लेने का प्रयास चलता रहता है। सरिताओं के माध्यम से पृथ्वी की सारी सम्पदा समुद्र हथिया लेता है-रत्नाकर कहाता है, प्रभाकर सूर्य उसे वास्तविकता बताकर उसकी जोड़ी सम्पत्ति प्रकाश में लाना चाहता है, जल का वाष्पीकरण होता है, उससे रत्नाकर क्षुब्ध होता है । अपने सहकर्मी चन्द्र की सहायता लेता है, चन्द्र जल को आकर्षित करता है और रत्नाकर की निधि को ढक देता है । प्रभाकर तब भी नहीं हारता तो जलधि जलकणों को बादल बना कर सूर्य को ढकने भेजता है। बादलों के प्रयास तीव्र से तीव्रतर होते जाते हैं। सूर्य-अपराजेय सूर्य का मानमर्दन करने व उसे परास्त करने के लिए रत्नाकर राहु को भेजता है उसे ग्रस लेने के लिए। सूर्यग्रहण होता है किन्तु फिर ग्रहण दूर भी हो जाता है । इन्द्र रोष में आ कर वज्र से बादलों को छिन्न-भिन्न कर देता है पर बादल क्रोध में आ कर जाते-जाते उपल-वर्षा कर जाते हैं। अर्थात् इस प्रकार दुष्टजन अधिकाधिक शक्ति से, बल से सुजन की सही बात न मानते हुए उसे परास्त करने की दुरभिसन्धि में लीन रहते हैं। कुम्भकार के सत्परिश्रम रूप कच्चे कुम्भ को सूखने न देने के लिए तमाम षड्यन्त्र रचे जाते हैं-आँधी, पानी, ओले और सब कुछ । धन वर्षा भी की जाती है ताकि साधना भंग हो जाए। और धन पर अधिकार जमाने राजा (शासक) उपस्थित हो जाता है, यद्यपि वह अपने मन्तव्यों में सफल नहीं हो पाता। साहित्य में मानव का हित तत्त्व छिपा हुआ है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि जो साहित्य जनमानस को परमुखापेक्षिता से नहीं बचा सकता, वह निरा वाग्जाल है । साहित्य में शब्द ही शब्द तो हैं, यदि उन शब्दों के द्वारा मानव का कोई आत्यन्तिक कल्याण सिद्ध न होता हो तो उस वाग्-व्यापार से क्या लाभ ? और महाकाव्य ? उस की महानता केवल आकार की, शब्द सम्पदा की, अलंकार छटा की अथवा कल्पना की उड़ान की ही नहीं होती, उस का सम्बन्ध मानवता से होता है, मानव के सुख-दुःख से, कल्याण से, संकटों एवं समस्याओं से उसका घना सरोकार होता है । इसी से पलट-पलट कर कविगण महाकाव्यों के लिए ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रतिष्ठित प्रसंगों-सन्दर्भो को
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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