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________________ 72 :: मूकमाटी-मीमांसा 'मूकमाटी' की रचनाधर्मिता का वास्तविक क्षेत्र है इसका अभिव्यक्ति शिल्प । काव्य तो हृदयोद्भूत निराकार अव्यक्त तत्त्व होता है । उसका वर्ण, रेखाएँ, भंगिमाएँ, आयाम तथा कोण क्या हैं, कैसे हैं, इसकी अनुभूति होती है मात्र इसके स्वामी को । उस अनुभूति को उसकी सम्पूर्ण वर्णच्छटा में, आकार-प्रकार में प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ बना देना अभिव्यक्ति-शिल्प का ही कार्य होता है । कथ्य का रूप - स्वरूप कवि में अन्तर्भूत चिन्तक की सृष्टि होती है और उसकी अभिव्यक्ति कवि में अन्तर्निहित कलाकार की । 'मूकमाटी' का कवि जैसा अनुपम चिन्तक है वैसा ही विशिष्ट कलाकार । इस सन्त कलाकार ने अभिव्यक्ति के माध्यम भाषा - तत्त्व का जिस कौशल एवं सहज अधिकार से प्रयोग किया है, वह स्थान-स्थान पर चकित करता है । भाषा की गति उसके छन्द में देखी जाती है । प्राय: महाकाव्य सुनिर्दिष्ट छन्दों में लिखे जाते हैं, सर्गान्त में छन्द परिवर्तित होता है जो कि अगले सर्ग में कथा - क्रम के परिवर्तन का संकेत-सूचक होता है । ‘मूकमाटी' में छन्द कथा-क्रम के अनुसार परिवर्तित नहीं होता अपितु म्रष्टा कलाकार की संवेदना की तरंगों व भंगिमाओं के अनुसार कहीं सरपट दौड़ता है, कहीं ज़रा रुक कर विश्लेषण करता है, कहीं उछालें लेता है, कहीं प्रश्न पर प्रश्न दाग़ता है और कहीं शान्त चित्त की एक धवल हँसी को व्यक्त करता है। इस छन्द का कोई नाम नहीं है- यह केवल छन्द है भाव के नर्तन का स्वर, ताल, भाव के संगीत की लय और अनुभूति का आकार, यथा : O " इस अवसर पर / पूरा-पूरा परिवार आ / उपस्थित होता है..... तैरती हुई मछलियों से / उठती हुई तरल- तरंगें / तरंगों से घिरी मछलियाँ ऐसी लगती हैं कि / सब के हाथों में / एक-एक फूल-माला है।" (पृ. ७६) "भाँति-भाँति की लकड़ियाँ सब / पूर्व की भाँति कहाँ रहीं अब ! सब ने आत्मसात् कर/अग्नि पी डाली बस ! O O या, इसे यूँ कहें - / अग्नि को जन्म देकर अग्नि में लीन हुईं वे । " (पृ. २८२ ) " कायोत्सर्ग का विसर्जन हुआ, / सेठ ने अपने विनीत करों से अतिथि के अभय-चिह्न - चिह्नित / उभय कर-कमलों में संयमोपकरण दिया मयूर-पंखों का/जो / मृदुल कोमल लघु मंजुल है ।" (पृ. ३४३) उपर्युक्त उदाहरणों में छन्द मन्द गति से, ठहरे - सधे पगों से मानों राजपथ पर टहल रहा है - सीधा, शान्त, स्पष्ट, अनुद्विग्न। इन तीन उद्धरणों में छन्द का स्वरूप निर्धारण नहीं किया जा सकता । इनमें मात्राओं की गणना नहीं की जा सकती, क्योंकि वे सम नहीं हैं, यह तो केवल छन्द है, गति-भंगिमा । इसमें संगीतकार गायक द्वारा ली जाने वाली तानें पलटें हैं- पृष्ठ २६२ - २६४ तथा २९० आदि । और अनेक स्थानों पर छन्द की गति संगीत समारोह में हुई गायक व तबलावादक की गुणप्रदर्शिनी संगति की याद दिला देता है । गति तो है छन्द, परन्तु गति है किसकी ? भाषा की और भाषा पर निश्चित रूप से लेखक का अधिकार है और लेखक ने भाषा का प्रयोग पूर्ण अधिकार के साथ किया है। संस्कृतनिष्ठ भाषा, शुद्ध तत्सम शब्द एक लोकोत्तर समाज व परिवेश का निर्माण सहज ही कर डालते हैं- कुम्भकार, देशना, सीमातीत शून्याकाश, बोधि, सल्लेखना, कषाय, व्याधि, उपाधि, उपाश्रम, प्रभाकर, जलधि, रत्नाकर, पगतली, पग-निक्षेप, जलांजली, धौव्य, रसकूप, उद्वेग, ऊष्मा, लेश्या, उपशमन, काष्ठा-पराकाष्ठा, प्रासुक, गन्धोदक, कायोत्सर्ग, घृतांश, वैषयिक भोग-लिप्सा, सारहीना, विपदा प्रदायिनी आदि शब्द हिन्दी के होते हुए भी एक हिन्दीतर वातावरण की एवं प्रकारान्तर से एक अन्य लोकातीत समाज के वातावरण की रचना कर डालते हैं । उस वातावरण में कृति का सन्देश सहज ग्राह्य हो उठता है । 'मूकमाटी' के शब्द
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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