________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 71 विवेक है व अपनी-अपनी आचरण संहिता है । यहाँ धरती धारणकर्ती है। अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करने का संकल्प लिया है धरती ने । सागर पर-सम्पदा हरणकर्ता, निम्न कोटि का कर्मकर्ता जड़-धी जलधि है और 'विष का विशाल भण्डार' है। धरती-माँरूपिणी धरती निर्विघ्न जीने हेतु सदा, सर्वदा सबके उद्धार की ही बात सोचती है। बाँस, नाग, शूकर, मेघ, सीपी आदि सबके सब माँ धरिणी की आज्ञा का पालन करके भाँति-भाँति के मोती बनाते हैं और धरती का यश बढ़ाते हैं । चन्द्रमा इसे सहन नहीं कर पाता । धरती को अपमानित, अपवादित करने हेतु जल तत्त्व को बढ़ा कर धरती पर दलदल पैदा करता है । सागर का संकेत पा कर क्षीण कटि बदलियाँ आकाश-पटल पर विहार करने निकल पड़ती हैं। तीन बदलियों में एक शुभ्रवसना साध्वी-सी, दूसरी पलाश की हँसी-सी साड़ी पहने पद्मिनी की शोभा सकुचाती-सी और तीसरी सुवर्ण-वर्ण की साड़ी पहने है। तीनों बदलियाँ सागर के आदेश पर आकाश में आकर, सूर्य को छिपा कर, वर्षा बरसा कर सूखे कुम्भ का नाश करना चाहती थीं, परन्तु आकाश में प्रभाकर के द्वारा उन्हें न्यायोचित, नारि योग्य करुणा, पोषण, वात्सल्य आदि का उपदेश दिए जाने पर वे बदल गईं। अपनी भूल की क्षमा माँग कर वे वापस जाने लगी और तभी पृथ्वी कणों का जलकणों से मेल हुआ और मेघ-मुक्ताओं का आविर्भाव हुआ, फलत: मेघ-मुक्ताओं की वर्षा हुई। इस से पृथ्वी की महिमा-वृद्धि होती देख कर सागर क्षुब्ध होता है, कुपित होता है, बदली की निन्दा करता है । वह कहता है- 'भूल कर भी कुल-परम्परा-संस्कृति का सूत्रधार स्त्री को नहीं बनाना चाहिए और गोपनीय कार्य के विषय में विचार-विमर्श-भूमिका नहीं बतानी चाहिए।' इसी प्रकार घनघोर घन आकाश में उमड़ते हैं, इन्द्रधनुष उन्हें मिटाता है, सागर और अधिक जल प्रेषित करता है, और घन बनते हैं । इन्द्र आवेश में आकर अमोघ वज्र फेंकता है, बादल आहत होते हैं, आह भरते हैं, उनकी चीख-पुकार सुनकर बिजली काँपने लगती है और फिर सागर के नूतन आदेश पर बादल उपलवर्षा करते हैं। कुछ देर बाद बादल रीत जाते हैं। मधुर गुलाब का पौधा अपने मित्र पवन को बुलाता है, अपने फूल हिला-हिला कर पवन का स्वागत करता है और पवन आकाश में जाकर बादलों को उड़ा ले जाता है । इसी प्रकार सभी पात्र अपने-अपने व्यक्तित्वों से मण्डित अपनी-अपनी क्रियाओं में संलग्न हैं। यह इन पात्रों का मानवीकरण नहीं है अपितु इनका सजीवीकरण है। प्रत्येक पात्र सजीव हैं, व्यक्तित्वयुक्त हैं और अपनी चर्या में लीन हैं। एक मनस्तत्त्व है जो सबके अन्दर विद्यमान है, एक गतिशीलता है जो सबमें व्याप्त है और एक जीवन्तता है जो सबमें अनुस्यूत है । कलश से लेकर झारी तक, स्वर्ण से लेकर माटी तक, पृथ्वी से लेकर आकाश व सागर तक सभी में यह जीवन्तता व व्यक्तित्व उपलब्ध है। मानव पात्र तो दो-एक ही हैं-शिल्पी कुम्भकार और सेठ या आतंकवादी समूह । मुनिवर को भी मानव पात्रों में गिन लिया जा सकता है । इनके अतिरिक्त शेष सब मानवेतर पात्र ही हैं-जड़ व जंगम दोनों प्रकार के पात्र, पर अपने व्यक्तित्व व जीवन्तता में परम सजीव, परम प्राणवन्त ।
सम्पूर्ण कथ्य को चार खण्डों में विभाजित कर के शिल्पित किया गया है । महाकाव्य में कथा क्रम की संरचना, कथा का प्रबन्धन विशेष महत्त्व रखता है। सर्गबन्धो महाकाव्यम्' के आधार पर महाकाव्य सर्गबद्ध होता है। 'मूकमाटी' सर्गबद्ध नहीं है, अध्यायों-परिच्छेदों में भी विभक्त नहीं है । चार खण्डों में विभाजित हो कर रची गई कथाकृति है। खण्डों की योजना कथा-क्रम को नहीं, कथाकार की दृष्टि को उद्घाटित करती है । 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक के चार खण्ड साधना के चार चरणों को रेखांकित करते हैं। प्रथम खण्ड साधक द्वारा आत्मशुद्धि की प्राप्ति का चरण है, द्वितीय खण्ड साधक द्वारा शब्द से ज्ञान की ओर बढ़ने का चरण है, तृतीय चरण साधना में लीन हो कर अपने पापों को धोने व पुण्य के पालन की तपस्या का चरण है तथा चतुर्थ चरण अग्नि-परीक्षा देने और उसमें सफल होने का चरण है । यह खण्ड विभाजन संकेत कर रहा है कि यह महाकाव्य कथा नहीं, घटना-क्रम नहीं है अपितु यह तो साधना की, तपस्या की, मुनि बनने की प्रक्रिया का शब्दांकन है, न इससे कुछ कम, न कुछ ज़्यादा।