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________________ 'मूकमाटी' : एक प्रासंगिक आधुनिक महाकाव्य डॉ. पुष्पा बंसल कविता एक राष्ट्र की हृत्स्पन्दन होती है और महाकाव्य राष्ट्र के चिन्तन, मनन, दर्शन, अध्यात्म की परम्पराओं का कवि-कलाकार के हृत्स्पन्दन में विलय । कवि-हृदय तो कम्पित, विचलित, उद्वेलित, आलोड़ित होता ही है, अन्तर होता है उक्त आलोड़न के कारणभूत तत्त्व का । जब वह आलोड़न-विलोड़न किन्हीं व्यक्तिगत, तात्कालिक कारणों व विभेदों को लेकर होता है तो वह व्यक्तिगत कविता के रूप में ढलता है, परन्तु जब कवि-हृदय का उद्वेलन निजेतर कारणों से होता है, जब उस हृदय सागर में आलोड़न-विलोड़न उपस्थित करने का कारण राष्ट्र की, समष्टि की, युगधर्म की चेतना होता है, तब जो प्रबन्धात्मक सृष्टि होती है वह महाकाव्य कहलाता है । महाकाव्य स्रष्टा कवि की प्रतिभा का प्रतिबिम्ब और राष्ट्र के गौरव के उद्गायक होते हैं। 'मूकमाटी' जैनाचार्यश्री विद्यासागरजी द्वारा प्रणीत हिन्दी का नव्यतम महाकाव्य है जो केवल आकार-प्रकार एवं पृष्ठ संख्या से ही नहीं, अपितु अपनी आत्मा, प्रवृत्ति, चिन्तन व सन्देश से भी इस पद का अधिकारी है। __अहिंसा, क्षमा, अपरिग्रह, तपस्या, सत्य एवं शुद्धता के दार्शनिक विश्वासों की पीठिका पर दृढ़तापूर्वक आसीन जैन मुनिवर के कलाकार मानस में भयंकर हिन्दोल होता है-संसार के स्वरूप को लेकर । केवल स्वरूप नहीं -स्थिति, प्रकृति, आचार-व्यवहार को लेकर । मानव का उद्गम, विकास, जीवनचर्या, मनोविज्ञान, विभिन्न व्यवहार व विभिन्न व्यापार, इन सबके कारण, इन सबके परिणाम व प्रभाव और इन सबकी चपेट में आया हुआ मानव, यही नहीं इन सबके परिणामस्वरूप मानव-जीवन में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख, क्लेश, आपदाएँ, आशंकाएँ तथा इन के निवारण का तन्त्र । यह सम्पूर्ण चक्र महाकवि के मानसपटल पर अपना प्रभाव डालता है, उन के चिन्तन को उद्वेलित करता है, उनके संवेदन को घूर्णित करता है और उनकी अपनी जैन-दर्शन की धौत-विवेक-दृष्टि उसे एक स्पष्ट, भास्वर आकार देकर एक कथानक में ढाल देती है। सरिता तट की माटी अपने जीवन की अनुपयोगिता व निरर्थकता से उदासीन, चिन्तित हो अपना दु:ख माँ धरती को कहती है । जीवन की सार्थकता का उपाय पूछ कर निरुत्साह की स्थिति को बदल डालने की प्रार्थना करती है। धरती का उत्तर है- तपस्या, साधना, शुद्धि, परिपक्वता, अग्नि-परीक्षा और समाजोपयोगिता का लक्ष्य । मात्र यही एक उपाय है जीवन की निरर्थकता को सार्थकता में परिवर्तित करने का । माटी जैसा क्षुद्र, अनादृत, पदमर्दित, पद दलित पदार्थ कैसे जीवन सार्थकता का लाभ कर सकता है ? कर सकता है, तपपूर्वक-रूपित होकर, आकार में ढल कर, उपयोगी उपकरण बन कर । कुम्भ-शिल्पी कुम्भकार के हाथों में शिष्यवत् स्वयं को सौंपकर । माटी ने यही किया। कुम्भकार आया, माटी को खोदा, छाना, बोरियों में बन्द किया, गदहे पर लादा, उपाश्रम - कार्यशाला में ले गया, चालनी से छान कर, कंकर हटाकर वर्ण-संकरता दूर की, पानी मिलाकर उसे फुलाया, दोनों पैरों से रौंद-रौंदकर मुलायम कर डाला और फिर चाक पर चढ़ाकर डण्डे की सहायता से उसे कुम्भ के आकार में ढाल लिया । इस सारी प्रक्रिया में न केवल माटी का कण-कण शद्ध हो गया, सब विषम तत्त्व उससे पथक हो गए, प्रत्युत कटने, छानने, रौंदने आदि की ग-अंग मर्दित हो गया. उसकी शक्ल ही परिवर्तित हो गई। यही साधना का अन्त नहीं है. यह तो केवल प्रथम चरण की प्राप्ति है। अभी तो कुम्भ कच्चा है, उसमें जलीय अंश शेष हैं वे, जो विषम अंश हैं। उन्हें सूखना है और फिर सूखे, कच्चे कुम्भ को अवा की आग में पक कर पक्का बनना है । धूप में सूखते कच्चे कुम्भ को सम्पूर्ण प्राकृतिक आपदाओं और विरोधों का सामना करना पड़ता है। समुद्र, आकाश, मेघ, वज्र, बिजली, ओले आदि सब कुछ का सामना । राहु द्वारा सूर्य को निगल लेने के कारण उत्पन्न सूर्यग्रहण की विभीषिका का सहन और प्रबल वात
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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