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________________ 66 :: मूकमाटी-मीमांसा माटी की मंगल कलश के रूप में बदलने की पूरी कथा में संवर एवं निर्जरा की झलक मिलती है। सर्वप्रथम माटी को पृथ्वी से निकाला जाता है जिसके पृथ्वी में रहने के कारण होने वाले विजातीय कंकर-पत्थर के सम्पर्क का अभाव हो जाता है । तत्पश्चात् माटी में विद्यमान कंकरों को अलग किया जाता है और कुम्भ का रूप देकर माटी को अग्नि में तपाया जाता है । तब आती है माटी में जलधारण करने की क्षमता । इस सम्पूर्ण प्रसंग से जैन दर्शन के निर्जरा तत्त्व का ही विवेचन किया गया है। जैन दर्शन के अनसार सत वह है जिसमें उत्पाद, व्यय एवं धौव्य हो । यहाँ उत्पाद एवं व्यय परिवर्तन के सचक हैं जब कि ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है । इससे यह ध्वनित होता है कि वस्तु के विनाश एवं उत्पाद में व्यय एवं उत्पत्ति के रहते हुए भी वस्तु न तो सर्वथा नष्ट होती है और न ही सर्वथा नवीन उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पाद के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है जो न तो नष्ट होती है और न ही उत्पन्न । इसी सिद्धान्त को 'मूकमाटी' में इस प्रकार कहा गया है : "आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य !" (पृ. १८५) जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में अनेक गुण एवं अनेक पर्यायें होती हैं । इन अनन्त गुण-पर्यायों में से व्यवहार में प्रायः किसी एक विशेष गुणधर्म के उल्लेख की आवश्यकता होती है । अतएव व्यक्ति को किसी पदार्थ के किसी गुण का कथन इस प्रकार करना चाहिए जिससे उस वस्तु में विद्यमान अन्य गुणों का अपलाप न हो। इसी कथ्य को 'मूकमाटी' में अत्यन्त सहज भाव से इस प्रकार व्यक्त किया गया है: " 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा,/तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! और,/'भी' का कहना है कि/हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ ! 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है/'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है।" (पृ. १७२-१७३) ___ जैन संस्कृति में मुनि के आहार का विशेष महत्त्व है । आहार के प्रति मुनि को क्या भाव रखना चाहिए – इसे अत्यन्त सुस्पष्ट ढंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : "बस, इसी भाँति,/दाता दान देता जाता/पात्र उसे लेता जाता, उदर-पूर्ति करना है ना !/इसी का नाम है गर्त-पूर्ण-वृत्ति समता-धर्मी श्रमण की!" (पृ. ३३२-३३३) इसी प्रकार श्रमण की अन्य वृत्तियाँ-गोचरी वृत्ति, अग्निशामक वृत्ति, भ्रामरी वृत्ति आदि का भी सुस्पष्ट चित्रण 'मूकमाटी' में उपलब्ध होता है। ___सारांश यह है कि 'मूकमाटी' में माटी की कथा के माध्यम से आचार्य विद्यासागरजी ने जैन दर्शन को जनमानस में उतारने का सशक्त प्रयास किया है । यदि कोई व्यक्ति 'मूकमाटी' का गहन अध्ययन कर जैन दर्शन का अध्ययन करे तो वह व्यक्ति जैन दर्शन के सार को सहजता से हृदयंगम कर सकेगा।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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