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________________ 'मूकमाटी' की दार्शनिक पीठिका डॉ. कोमल चन्द्र जैन आचार्य विद्यासागरजी महाराज द्वारा विरचित 'मूकमाटी' आधुनिक युग के हिन्दी साहित्य को एक अनुपम देन है। यह कृति काव्य है अथवा एक दार्शनिक ग्रन्थ-यह एक विचारणीय प्रश्न है। 'काव्य की आत्मा रस है' तथा 'रसस्तु शान्त: कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमप्रधान:' को ध्यान में रखकर यदि 'मूकमाटी' का अध्ययन किया जाय तो निश्चित रूप से इसे एक उत्तम काव्य कहना समुचित होगा । कारण, 'मूकमाटी' पाठक को अनवरत रूप से शान्त रस की अनुभूति कराता है। यदि 'उक्ति वैचित्र्य' को ही काव्य का जीवन कहा जाय, तब भी 'मूकमाटी' को काव्य मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी। ___ 'मूकमाटी' के सम्पूर्ण कथानक में जैन दर्शन के मूल सिद्धान्तों की झलक दिखाई देती है । अत: इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि 'मूकमाटी' का आधार जैन दर्शन में मान्य विभिन्न सिद्धान्त ही हैं । इसमें गुणस्थान, सप्त तत्त्व आदि का अप्रकट रूप से विवेचन है तो सत्, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि का सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। शब्द की नित्यता, प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध में सांख्य सिद्धान्त का खण्डन भी उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त जैन मुनि के आहार के सम्बन्ध में भी विवेचन किया गया है जिसे पढ़कर सामान्य जन भी मुनि की आहार की विधि एवं उसके महत्त्व को समझ सकता है। जैन दर्शन में गुणस्थानों के माध्यम से आत्मा के उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों को व्यक्त किया गया है । यद्यपि विशुद्ध परिणामों की प्राप्ति तक आत्मा को अनेक अवस्थाओं से गुज़रना होता है, किन्तु सुविधा की दृष्टि से चौदह प्रमुख अवस्थाओं का चित्रण चौदह गुणस्थानों के माध्यम से किया गया है। इनमें से पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है और अन्तिम अयोगकेवली । इन दोनों में एक निकृष्टतम अवस्था है तो दूसरी विशुद्धतम । इन दोनों चरम अवस्थाओं के मध्य में अवस्थित दशाएँ तृतीय कोटि की अवस्थाएँ हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था में चारित्र शक्ति का सम्पूर्ण ह्रास तथा द्वितीय अवस्था में चारित्र का सम्पूर्ण विकास होता है । क्रोध, मान, माया एवं लोभ-इन चार कषायों की प्रगाढ़ता से आत्मा की निकृष्टतम अवस्था होती है जब कि इन्हीं कषायों की समाप्ति के उपरान्त उत्कृष्ट विशुद्धि की प्राप्ति होती है । 'मूकमाटी' में प्रथम अवस्था के रूप में माटी के उस रूप का चित्रण है जो पद-दलित है, तिरस्कृत है और अनेक यातनाओं एवं पीड़ाओं से युक्त है : "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, "अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) इसी प्रकार द्वितीय अवस्था के रूप में मंगल कलश का चित्रण है : “न ही कुम्भ की यातना/न ही कुम्भ की याचना/मात्र "वह वहाँ तब ! कहाँ है प्यास से पीड़ित-प्राण ?/वह शोक कहाँ/वह रुदन कहाँ।" (पृ. २९५) ज्यों-ज्यों कषायों में मन्दता आती जाती है, त्यों-त्यों परिणामों में विशुद्धि की मात्रा बढ़ती जाती है । इस तथ्य को 'मूकमाटी' में जलत्व से व्यक्त किया गया है । जलत्व ही माटी की मुक्ति में या मंगल कलश बनने में बाधक है और जब माटी का जलत्व समाप्त हो जाता है, तब उसका स्वरूप विशुद्ध हो जाता है : “कुम्भ में जलीय अंश शेष है अभी/निश्शेष करना है उसे... बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का,/विलय हो नहीं सकता।" (पृ. १७६)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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