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64 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसी प्रकार, एक जगह 'अव्याप्ति' भी आ गई है । आचार्यश्री ने सिंह के स्वभाव के बारे में लिखा है :
“किन्तु, सुनो !/ भूख, मिटाने हेतु / सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता न ही अपने / सद्य:जात शिशु का भक्षण..!" (पृ. १७१ - १७२ )
किन्तु, आर्यशूर की 'जातकमाला' के 'व्याघ्रीजातक' में क्षुधापीड़ित व्याघ्री या सिंहनी को अपने नवजात शिशुओं का भक्षण करने को आकुल दिखाया गया है। भगवान् बुद्ध या बोधिसत्त्व अगर अपना शरीर अर्पित नहीं करते तो वह नवजात शिशुओं को खा ही जाती। इस प्रकार, बहुश्रुत आचार्यश्री द्वारा प्रस्तुत सिंह स्वभाव सार्वभौम सत्य नहीं बन पाया है।
आचार्यश्री की यह काव्यकृति कोश का अनुसरण नहीं करती वरन् कोशकारों के लिए नई शब्दावली प्रस्तुत करती है । इस सन्दर्भ में ‘चार्मिक वतन' (पृ. १६); 'हास-दमंग' (पृ. २१); 'सावणता' (पृ. ८१ ); 'सदोदिता' (पृ. १०२); 'अस्तिमा' (पृ. १८४ ) ; ' दधि - धवला' (पृ. १९९ ); 'अदेसख' (पृ. २२३), 'अरुक' (पृ. २३९); 'पलायु' (पृ. २४८); ‘तृपा’(पृ. २६३); 'दूरज' (२६५); 'आविर्माण' (पृ. ३२०); 'नसियाजी' (पृ. ३४६); 'गोड़' (पृ. ३६१); ‘मत्स्य-मुक्ता’(४६३) आदि शब्द ध्यातव्य हैं। इनमें कुछ शब्दों के अर्थ की विशदता के लिए पार्दाटिप्पणी अपेक्षित रह गई है ।
शब्द और अर्थ, भाव और भाषा, साथ ही मुहावरों और लोकोक्तियों, उपमाओं और रूपकों आदि शिल्पगत रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से आचार्यश्री की चिन्तन-पद्धति सर्वथा स्वतन्त्र है । आचार्यश्री की हृदयस्पर्शी पदशय्या एवं वचोभंगी की अभिव्यक्तिगत विचित्रता और विदग्धता से संवलित, सूक्तिसिक्त एवं बिम्बोद्भावक भाषा सचमुच बहुवर्णी है । कुल मिलाकर, 'मूकमाटी' हिन्दी का महनीय भाषाकाव्य है ।
आचार्यश्री धुरिकीर्तनीय भारतीय चिन्तकों एवं मोक्षमार्ग के उन्नायकों में अन्यतम हैं, यह 'मूकमाटी' में परिलक्षित होने वाली उनकी रचनागत मनीषा और विचारगत आन्वीक्षिकी से स्पष्ट है। उन्होंने अपनी इस काव्यकृति में सामाजिक दायित्वबोध, लोकजीवन, धर्म-दर्शन, आचार-विचार, मन्त्र-तन्त्र, आतंकवाद, दहेज समस्या, कल की महिमा, स्वर्णनिन्दा, आयुर्वेदोक्त रोगोपचार, अंकों और चित्रों का चमत्कार, अन्तरिक्षीय उपद्रव, मिथकीय चेतना, संगीतिक सप्तग्राम - विवेचना आदि विविध आयामों को उपस्थापित करके इसे प्रासंगिक बनाया है, जिससे यह काव्यग्रन्थ भारतीय संस्कृति का बृहदाख्यान बन गया है। इसमें माटी, धरती, कंकर, कण्टक, कुम्भ, सागर, कूप, नदी, बादल आदि प्राकृतिक उपादानों का पात्रीकरण और फिर उनका मानवीकरण करके उनके संवादों से कथावस्तु या घटनाचक्र को विस्तार देने की कला में आचार्यश्री ने अतिशय निपुण कथाकोविद की भूमिका का निर्वाह किया है। सचमुच, वह अतुल और विस्मयकारी शब्द भाण्डार के अधिस्वामी हैं ।
आधुनिक-अत्याधुनिक सभी प्रकार की चिन्ताओं और समस्याओं के अध्ययन से मुखरित, परमत- निरसन और स्वमत-निरूपण की शास्त्रार्थ - शैली से शब्दित यह काव्यकृति आधुनिक समाज-व्यवस्था का विश्लेषण भी है और समाधान भी । निश्चय ही इस कृति में काव्याध्यात्म का मणि-प्रवाल संयोग हुआ है। आचार्यश्री विद्यासागरजी अद्भुत शब्दशक्ति से सम्पन्न पारगामी काव्यशास्त्रीय होने के साथ ही श्रुतज्ञानी अध्यात्मचिन्तक भी हैं। इसलिए, लोक और परलोक को दृष्टि में रखकर लिखा गया यह महाकाव्य समसामयिक जीवन का तात्त्विक मूल्यांकन है ।
पृ. १
निशा का अवसान---
उपाकशान हो रही है!