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मूकमाटी-मीमांसा :: 63 सभंग : 0 "अगर बाती को अगरबाती का/योग नहीं मिलता तो.।" (पृ.१३४)
0 “यही मेरी कामना है/कि/आगामी छोरहीन काल में
बस इस घट में/काम ना रहे !" (पृ. ७७) इसी सन्दर्भ में धी-रता धीरता, काय-रता कायरता आदि प्रयोग भी द्रष्टव्य हैं। वर्ण-विपर्यय : 0 "राही बनना ही तो/हीरा बनना है।
"रा"ही"ही"रा"।" (पृ. ५७) 0 "राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा।" (पृ. ५७)
0 "धरती ती "र"ध/यानी,/जो तीर को धारण करती है।"(पृ.४५२) ___ इसी प्रसंग में आचार्यश्री द्वारा प्रस्तुत 'दुहिता' शब्द की महर्षि यास्क की निरुक्ति ('दूरेहिता दुहिता; गवां दोग्धेर्वा') से सर्वथा भिन्न निरुक्ति मननीय है :
"दो हित जिसमें निहित हों/वह 'दुहिता' कहलाती है अपना हित स्वयं ही कर लेती है,/पतित से पतित पति का जीवन भी हित सहित होता है, जिससे/वह दुहिता कहलाती है। उभय-कुल मंगल-वर्धिनी/उभय-लोक-सुख-सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका/कहीं रहकर किसी तरह भी
हित का दोहन करती रहती/सो'"दुहिता कहलाती है।"(पृ. २०५-२०६) इसी परिप्रेक्ष्य में कुम्भकार', 'नारी', 'अबला', 'अंगना', 'महिला', 'स्त्री', 'मातृ', 'वैखरी', 'कुमारी', 'सुता' आदि शब्दों की अपूर्व निरुक्ति द्रष्टव्य है। इस क्रम में वदतो व्याघात' भी परिलक्षित होता है । आचार्यश्री ने 'नारी' और 'स्त्री' की निरुक्ति में बताया है :
0 "इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन-सारी मित्रता/मुफ्त मिलती रहती इनसे । यही कारण है कि/इनका सार्थक नाम है 'नारी' यानी-/'न अरि' नारी"/अथवा/ये आरी नहीं हैं/सो"नारी"" (पृ. २०२) 0 “ 'स्' यानी समशील संयम,/'त्री' यानी तीन अर्थ हैं/धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में
पुरुष को कुशल-संयत बनाती है/सो'"स्त्री कहलाती है।"(पृ.२०५) किन्तु सागर के मुख से ठीक इसके विपरीत कहलवाया गया है, जिससे नारी चरित्र का हनन होता है :
"स्वस्त्री हो या परस्त्री,/स्त्री-जाति का स्वभाव है,/कि किसी पक्ष से चिपकी नहीं रहती वह । अन्यथा,/मातृभूमि मातृ-पक्ष को/त्याग-पत्र देना खेल है क्या ? ...इसीलिए भूलकर भी/कुल-परम्परा संस्कृति का सूत्रधार स्त्री को नहीं बनाना चाहिए।/और/गोपनीय कार्य के विषय में विचार-विमर्श-भूमिका/नहीं बताना चाहिए।" (पृ. २२४)