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62 :: मूकमाटी-मीमांसा
तरह संघर्षों में तपकर ही उपयोगी सिद्ध होता है। यही उसकी अग्नि-परीक्षा है । इस अग्नि-परीक्षा में बनने वाली राख भी चाँदी की तरह शुभ्र और मूल्यवान हो जाती है।
मूलत: काव्य की कथावस्तु या घटनाक्रम यहीं पूर्णता प्राप्त कर लेता है, परन्तु कविर्मनीषी आचार्यश्री ने कुम्भ की उपयोगिता, कथा को एक और मोड़ दिया है । इस क्रम में एक महाधनी सेठ की कल्पना की गई है। वह आहार दान का पुण्य अर्जित करता है । इसके बाद सेठ को वैराग्य हो आता है । इसी क्रम में सुवर्ण आदि धातुओं से निर्मित कलशों की अपेक्षा मिट्टी के घड़े को अधिक मूल्य दिया गया है । स्वर्णकलश की विनाशकारी मशाल से और मृत्कुम्भ की प्रकाशप्रद दीपक से तुलना की गई है।
सेठ रुग्ण हो जाता है और माटी के उपचार से वह फिर स्वस्थ हो जाता है । यहाँ मिट्टी के पात्र में बने भोजन की महत्ता के साथ ही, माटी के कुम्भ के विभिन्न चमत्कारों को भी दरसाया गया है । मृत्कुम्भ की महत्ता से स्वर्णकलश चिढ़ जाता है और वह उसके विनाश के लिए षड्यन्त्र रचता है । स्वर्णलोलुप आतंकवादियों का एक दल खड़ा हो जाता है। इस आतंकवाद से डरकर सेठ परिवार समेत भाग खड़ा होता है और अपनी कमर से कुम्भ बाँधकर नदी में कूद पड़ता है । नदी पार करने के बाद उसे धरती का सहारा मिलता है । इस प्रकार, आतंकवाद का अन्त और अनन्तवाद का श्रीगणेश होता है। काव्य के अन्त में परिवार सहित कुम्भ शिल्पी कुम्भकार का अभिवादन करता है :
० "कुम्भ के मुख से निकल रही हैं/मंगल-कामना की पंक्तियाँ ।" (पृ. ४७८)
0 “परिवार-सहित कुम्भ ने/कुम्भकार का अभिवादन किया।" (पृ. ४८१) इदमित्थम्, इस प्रबन्धकाव्य की संज्ञा 'मूकमाटी' की अपेक्षा कुम्भकथा' अधिक मौजूं लगता है। कुम्भकार ने माटी के जीवन को सँवार कर उसे उपादेय बनाया, उसका मंगल घट के रूप में संस्कार किया, इसलिए इन दोनों में नायक-नायिका का आरोप असंगत नहीं है।
___ 'मूकमाटी' काव्य कहीं-कहीं प्रतीक काव्य की सीमा का स्पर्श करता प्रतीत होता है, जिसकी कथावस्तु के कतिपय प्रसंग 'कामायनी' की कथावस्तु से अनुभावित लगते हैं । इस सन्दर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से 'मूकमाटी' का प्रारम्भिक प्राकृतिक परिदृश्य द्रष्टव्य है :
"सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,
और "इधर "नीचे/निरी नीरवता छाई।" (पृ. १) 'कामायनी' के प्रारम्भिक प्राकृतिक परिदृश्य की पंक्तियाँ हैं :
"नीचे जल था, ऊपर हिम था,/एक तरल था एक सघन ।" इसके अतिरिक्त, प्रसादजी ने दार्शनिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में जिस प्रकार श्रद्धा, इडा आदि प्रतीक पात्रों की अवतारणा की है, उसी प्रकार आचार्य विद्यासागरजी ने भी धरती, माटी आदि प्रतीक पात्रों का मानवीकरण किया है।
___आचार्य विद्यासागर विलक्षण काव्यकार होने के साथ ही विचक्षण शब्दकार भी हैं । उनकी शब्दशास्त्रीय प्रतिभा निरुक्तिकार यास्क की परम्परा का स्मरण दिलाती है । वर्ण-विपर्यय और सभंग-अभंग श्लेष द्वारा शब्दों की चमत्कारपूर्ण अर्थयोजना में आचार्यश्री की द्वितीयता नहीं है। जैसे : अभंग : “जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं/उन पर क्या, उनकी तस्वीर पर भी
अबीर छिटकाया नहीं जाता !" (पृ. १३२)