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मूकमाटी-मीमांसा :: 61
जाती है। किन्तु, बोरी से छन-छन कर बाहर आती माटी छिलन के छेदों में जाकर मरहम का काम करती है। शिल्पी माटी को उपाश्रम के परिसर में ले जाकर रखता है। फिर वह बारीक तारवाली चालनी में माटी को छानता है, कंकरों को हटाकर माटी का संशोधन करता है । इस प्रकार, कंकर का संकर या सम्मिश्रण हट जाने से माटी शुद्ध होकर वर्णलाभ करती है । इस शुद्धता पर बल देते हुए आचार्य-कवि फलितार्थ में कहते हैं :
"नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है/वरदान है।
और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९) तदनन्तर, रस्सी-बालटी के सहारे कुएँ से जल निकाला जाता है और जल मिलाकर माटी को फुलाया जाता है। इसी क्रम में बालटी में एक मछली आ जाती है और वह उछलकर माटी पर गिर जाती है । माटी और मछली के बीच आध्यात्मिक संवाद होता है । पुन: शिल्पी मछली को बालटी में डालकर कूप में सुरक्षित पहुँचा देता है।
खण्ड दो : शिल्पी जल से फूली हुई कुंकुम-सदृश माटी को पैरों से रौंदता है। फिर उस माटी को लोंदा बनाकर उसे घूमते चक्र पर रखता है और उसे कुम्भ का रूप देकर चक्र से धरती पर उतार लेता है । घट तैयार हो जाने पर उसकी बनावट में जो कुछ त्रुटियाँ शेष रह जाती हैं, उन्हें हाथ की हलकी-हलकी चोट से दुरुस्त करता है और जब घड़ा थोड़ा सूख जाता है, तब उस पर वह विभिन्न संख्याओं और चित्र-विचित्र पशु-पक्षियों की आकृतियों को अंकित करता है। फिर, कुम्भ को धूप में अच्छी तरह सुखाता है । इसी क्रम में आचार्यश्री ने आज की दोगला (=दो-गला)-संस्कृति, यानी कथनी और करनी में भेद को समाप्त करने का आदेश दिया है और इसी से इस खण्ड की अवतरणिका- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं को सार्थक या अन्वितार्थ किया गया है।
___खण्ड तीन : कुम्भकार किसी कारणवश प्रवास में जाता है । कुम्भकार की अनुपस्थिति में जलधि को कुम्भ समूह नष्ट करने की दुष्टता सूझती है । वह बदलियों द्वारा कुम्भकार के प्रांगण में वर्षा करा देता है । किन्तु, जल की वर्षा के स्थान पर मोतियों की वर्षा होती है। राजा अपनी मण्डली के साथ आता है और मोतियों को चुनकर उन्हें बोरियों में भरने का आदेश देता है। तभी किसी मन्त्रशक्ति से राजा और उसकी मण्डली के हाथ-पाँव-मुख कीलित हो जाते हैं। और इस प्रकार, उसकी अनायास धन प्राप्त कर लेने की कामना पूरी नहीं होती। ___कुम्भकार जब घर वापस आता है, तब वह इस घटना से दु:खी होता है और ओंकार के उच्चारणपूर्वक शीतल जल को हाथ में लेकर मन्त्रित करता है और मूर्छित राजा तथा उसके मन्त्रिमण्डल पर छिड़क देता है। सभी स्वस्थ हो जाते हैं। कुम्भकार अपनी अनुपस्थिति में हुए कष्ट के लिए राजा से क्षमा-प्रार्थना करता है और अपने हाथों मोतियों को बोरियों में भरकर राजा को अर्पित कर देता है। राजा अपनी मण्डली के साथ सत्य धर्म की जय-जयकार करता है।
जलधि का षड्यन्त्र विफल हो जाता है और बदलियाँ लजाकर लौट जाती हैं । यद्यपि इसके अतिरिक्त और भी अनेक उपसर्ग कुम्भ समूह को सहने पड़े। कुम्भ की इस कथा का फलितार्थ यह है कि संघर्ष और तप:साध्य पुण्य का पालन, पाप का प्रक्षालन कर देता है।
___खण्ड चार : कुम्भ को पकाने के लिए अवा तैयार किया जाता है । अवा के निचले हिस्से में बड़ी-बड़ी, टेढ़ीमेढ़ी गाँठवाली बबूल की लकड़ियाँ सजाई जाती हैं। उनके साथ लाल-पीली छालवाली नीम की लकड़ियाँ बिछाई जाती हैं। बीच-बीच में शीघ्र आग पकड़ने के लिए देवदारु की लकड़ियाँ रखी जाती हैं और धीमी-धीमी जलनेवाली इमली की लकड़ियाँ अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की जाती हैं और फिर अवा के बीचोंबीच कुम्भसमूह व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार, आचार्यश्री ने अवा के निर्माण का विशदता से वर्णन चिन्तन के अनुषंग में किया है। छोटी-से-छोटी बातों पर गहन दार्शनिक चिन्तन आचार्यश्री की अपनी रचनागत विशेषता है।
कुम्भ अग्नि परीक्षा में खरे उतरते हैं और वे मुक्तात्मा की तरह प्रसन्न हो जाते हैं। अब उनका मंगल घट के रूप में देवों और अतिथियों की पूजा में प्रयोग-उपयोग होने लगता है । इस खण्ड का फलितार्थ यह है कि मानव कुम्भ की