SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी का महनीय भाषाकाव्य : 'मूकमाटी' डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव जैन श्रमणाचार्यों द्वारा काव्यरचना किए जाने की परिपाटी का अपना उल्लेखनीय वैशिष्ट्य रहा है । इस दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की काव्य-परम्परा ने स्वतन्त्र मूल्य आयत्त किया है । ब्राह्मणों के संस्कृत काव्यों का श्रमणों के प्राकृत-अपभ्रंश काव्यों के परिवेश में समानान्तर अध्ययन तो बहुत कम ही हुआ है । पुन: परवर्ती काल में हिन्दी की एक प्रमुख उपभाषा राजस्थानी में जैनकाव्यों की रचना परम्परा की अपनी निजता, विविधता और विपुलता रही है। खड़ी बोली हिन्दी में यह परम्परा इधर आकर प्रायोविरमित-सी हो गई थी। किन्तु, अतिशय आह्लाद का विष है कि महाश्रमण आचार्य विद्यासागरजी ने जैन महाकाव्य 'मूकमाटी' की रचना द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के महाकाव्य की रचना-परम्परा की समृद्धि में सर्वथा नवीन निक्षेप किया है । दूसरे शब्दों में कहें, तो यह महाकाव्य हिन्दी के काव्य साहित्य की अपूर्व उपलब्धि है तथा भारतीय साहित्य वाङ्मय के लिए तो यह एक अभिनव और अद्वितीय सारस्वत उपायन है। जैनाचार्यों की प्राचीन काव्यकथाएँ प्राय: कामकथा से धर्मकथा या शृंगार से शान्त की ओर प्रस्थान करके पूर्णविराम लेती हैं। किन्तु, आचार्यश्री के इस महाकाव्य की कथा कुछ और ही है। यह एक शास्त्रदीक्षित आचार्य कवि का मनन और मीमांसा की मार्मिकता एवं काव्यरूपक की सुधा-स्निग्ध सुरभि से ओतप्रोत अनेकान्तवादी शास्त्रीय प्रबन्धकाव्य है । इस महाकाव्य के मनीषी प्रस्तवन-लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने ठीक ही कहा है कि 'मूकमाटी' केवल कविकर्म नहीं है, अपितु यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है। आचार्यश्री का यह संगीत भी संगातीत है । उन्होंने स्वयं लिखा है : "संगीत उसे मानता हूँ जो संगातीत होता है और/प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।" (पृ. १४४-१४५) इसलिए, जो पाठक नितान्त अंगसंगी काव्य पढ़ने के आदी हैं, उन्हें यह महाकाव्य रसवश तो नहीं कर सकेगा, पर जो चिन्तनशील अध्यात्मचेता हैं, वे अवश्य ही एक विशिष्ट आत्यन्तिक सुख की अनुभूति से अभिभूत होंगे। ___ अतुकान्त और अछन्दोबद्ध यह काव्य चार खण्डों में निबद्ध है जो पारम्परिक काव्यशास्त्रीय परिभाषा की परिधि में महाकाव्य सिद्ध नहीं होता, किन्तु अपनी गुणात्मक महत्ता की दृष्टि से 'महाकाव्य' की संज्ञा पा सकता है। मूलत: यह काव्य जैनधर्म-दर्शन का आख्यान काव्य है, इसलिए सहज ही निवृत्तिमार्ग की मर्यादा में आबद्ध है । नायकनायिका की नन्दतिकता से रहित इसकी छोटी-सी कथावस्तु विचारों की गहनता में या कि जीवन-दर्शन की व्याख्याविवेचना में नीर-क्षीर की तरह एकमेक हो गई है । नितान्त विचारप्रधान इस प्रबन्धकाव्य में नायक-नायिका का निर्धारण सहज नहीं है । तत्सम्बन्धी ऊहापोह भी निर्विवाद नहीं होगा। खण्ड एक का परिचय वाक्य है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; खण्ड दो की अवतरणिका है- 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं'; खण्ड तीन का विषय प्रतीक है-'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और खण्ड चार की विषय परिचायिका पंक्ति है-'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'। अवश्य ही, इन प्रतीकात्मक पंक्तियों से कथावस्तु स्पष्ट न रहकर व्याख्या-सापेक्ष हो गई है । मूल कथावस्तु कुछ इस प्रकार है : खण्ड एकः सरिता तट की माटी मातृकल्पा धरती से अपने जीवन की सार्थकता का उपाय पूछती है और धरती माटी के समक्ष जीवन-दर्शन का विस्तृत शास्त्र उपस्थित कर देती है । तभी, कला-कुशल शिल्पी कुम्भकार का चेहरा सामने उभरता है। कुम्भकार ओंकार को नमन कर क्रूर-कठोर कुदाली से माटी को खोदता है । माटी को खोद लेने के बाद कुम्भकार उसे बोरी में भर कर गधे की पीठ पर लाद ले चलता है। खुरदुरी बोरी की रगड़ से गधे की पीठ छिल
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy