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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 59 दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह ।" (पृ. ३०५) ७. रास्ते से चलते समय इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते चलना फूहड़पन है । संयत साधु विनीत दृष्टि से चलते हैं। साधुओं के विनीत दृष्टि होकर चलने पर भी आचार्यजी ने अनूठी कल्पना की है कि जब आँखें आती हैं तो दुःख देती हैं, अब आँखें जाती हैं तो दुःख देती हैं, जब आँखें लगती हैं तो दुःख देती हैं। ये आँखें दुःख की खान हैं, सुख की नाशक हैं, अत: साधुजन इन पर विश्वास नहीं करते और नीचे झुककर चलते हैं। 'मूकमाटी' का महाकाव्यत्व चार सौ अठासी पृष्ठों के प्रदीर्घ विस्तार में फैला हुआ महाकाव्य होने से 'मूकमाटी' को महाकाव्य कहा जा सकता है, परन्तु केवल विशाल काया ही इसके महाकाव्य होने की कसौटी नहीं है। 'मूकमाटी' में काव्यशास्त्र प्रणीत भाव, विचार, कल्पना एवं शैली – इन तत्त्वों का आत्यन्तिक विस्तार एवं ऊँचाई होने से भी यह महाकाव्य की कोटि में आ जाता है। ___'मूकमाटी' आध्यात्मिक विचारों एवं अनूठी कल्पनाओं का महानगर है । मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से साधना के पथ पर चलनेवाले मुमुक्षु के जीवन का अथ से इति तक का सम्पूर्ण लेखा-जोखा इसमें है । साधना मार्ग को प्रकाशित करने वाला यह 'दीप-स्तम्भ' है। जैन धर्म के सभी आगमों का सार इसमें समाया हुआ है। 'मूकमाटी' का शैली तत्त्व भी अत्यन्त मनोहारी, मार्मिक एवं मनोरंजक है। रोचकता, मार्मिकता, गतिशीलता, नाट्यमयता आदि गुण-रत्नों से भरा यह रत्नाकर' है। पाठक के मन को प्रसन्न, प्रफुल्लित एवं आनन्दमय सूक्तियों का यह 'सुधाकर' है। गृहस्थाश्रमी के जीवन को प्रभावित कर उन्हें मानवता के मार्ग पर चलने की हृदयस्पर्शी चेतना देनेवाली सूक्तियों का यह भण्डार' है । उन्हें आदर्श आचरण की पद्धति सिखानेवाला यह 'जीवन दर्शन' है। 'मूकमाटी' को काव्यशास्त्र के परम्परागत नियमों एवं लक्षणों के चौखटे में ही देखने के आग्रही भले ही इसके महाकाव्य शब्द को देख कर नाक-भौं सिकोड़ते रहें, परन्तु इसमें कोई शंका नहीं कि 'मूकमाटी' भव्य शान लिए अपने ढंग का और अपने अलग ठाठ का 'महाकाव्य' है। 'मूकमाटी' : हिन्दी कविता की अभिनव विधा की परिचायक रचना ___डॉ. बच्चूलाल अवस्थी 'ज्ञान' मुनिवर विद्यासागरजी की कृति 'मूकमाटी' मैंने देखी। मुनिजी ने नवीन शैली का हिन्दी में चमत्कारी आविष्कार किया है जो यमक-बहुल है । इसमें हिन्दी कविता की अभिनव विधा का परिचय मिलता है । इस धारा में अभी कार्य की अपेक्षा है, अतः श्रावकों पर यह कर्तव्य-भार आता है कि वे इस को रचना द्वारा आगे बढ़ाएँ। मैं मुनिवर के प्रति नमन करता हुआ प्रशस्ति से विरत होता हूँ और आशा करता हूँ कि ऐसी रचनाएँ दे कर वे बुद्धिजीवी जनों का कल्याण करते रहेंगे।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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