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________________ 58 :: मूकमाटी-मीमांसा करता है, जो उसके भाव विश्व की अभिव्यक्ति में सहायक होते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है : 'जो न देखे रवि, वह देखे कवि' । 'मूकमाटी' के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आचार्य-कवि का कल्पना जगत् कितना विशाल, गहरा और उत्तुंग है । कल्पना-विलास के कुछ दृश्य देखिए : १. अतिवृष्टि से धरती की सम्पदा सागर में बह जाती है। इसलिए सागर 'रत्नाकर' हो गया है और धरती 'धरा' ही रह गई । दूसरों की सम्पदा लूटना बुद्धिहीनता है, इसलिए तो 'जलधि' 'जड़-धी' अर्थात् बुद्ध हो गया है। २. सूर्य की प्रखरता से सागर का जल सूख जाता है। यह सूर्य की न्यायपरकता है। सूखा जल जलद (बादल) के रूप में सूर्य की ओर जाता है, मानो उसे घूस देता है । ३. वर्षा के कारण वसुधा की 'सुधा' सागर में एकत्रित होकर जलद के द्वारा चन्द्रमा की ओर प्रेषित होती है, इसीलिए वह 'सुधाकर' हो गया है। बेचारे सागर को सिर्फ क्षार ही मिलता है । चन्द्रमा को इस बात की लज्जा आती है, तभी तो वह कलंकित हो गया और दिन में नहीं, रात्रि में लुक-छिप कर आता है । उसे देख कर सागर क्षुब्ध होकर उमड़ पड़ता है। प्रकृति में निरन्तर चलनेवाली इस स्वाभाविक क्रिया का कितना अनूठा अर्थ निकाला है । इस अनूठे अर्थद्वारा आचार्यश्री ने मानवीय जीवन की वास्तविकता को उद्घाटित किया है : "यह कटु सत्य है कि / अर्थ की आँखें / परमार्थ को देख नहीं सकतीं अर्थ की लिप्सा ने / बड़ों-बड़ों को निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) ४. सीप यह धरती का ही अंश है। धरती माँ इस अंश को प्रशिक्षित कर सागर में भेज देती है। यही सीप जल को मुक्ता - फल के रूप में परिवर्तित कर मानों उसे नया वैभव सम्पन्न जीवन देती है । पतन के गर्त से उठाकर जल को गौरवपूर्ण उत्तुंग स्थान पर बिठा देती है । निसर्ग की इस स्वाभाविक क्रिया को आचार्यश्री ने 'सही दया धर्म' और 'जीवन का कर्म' कहा है। साथ ही मानव को 'दया धर्म का मूल है' इस कर्तव्य का भान कराया है। ५. सागर के जल पर अनेक शुक्तियाँ - सीपें जल कणों की प्रतीक्षा में तैरती रहती हैं। जैसे ही उनमें दो-एक बूँदें गिरती हैं, वे बन्द हो जाती हैं। कालान्तर में उनमें मोती तैयार होते हैं। सागर उन शुक्तियों को बन्द होते ही अपने अन्दर डुबा देता है, अन्दर ही छुपा देता है और उनकी रक्षा के लिए सर्पों, मगरमच्छों और विषधर-अजगरों की बड़ी फ़ौज नियुक्त कर देता है। धरती के इस उपकार के बदले में कृतघ्ना जल, जल उठता है, जो बादल के रूप में अतिवृष्टि कर धरती पर दल-दल पैदा कर देता है । धनवान् बना सागर स्वार्थसिद्धि एवं प्रसिद्धि के लिए कितना अनर्थ ढाता है। आचार्यजी यहाँ धन लिप्सा की वृत्ति को धिक्कार करते हैं । ६. कुम्भ खरीदते वक्त उसे कंकर से बजा-बजा कर परखने की एक स्वाभाविक पद्धति है । आचार्यजी इस क्रिया से भी अनोखा अर्थ निकालते हैं। वे कहते हैं कि कुम्भ से 'सा रे ग म''प' ं"ध ं'नि'–ये सात स्वर निकलते हैं । इन स्वरों का अनूठी कल्पना द्वारा अर्थ भी वे लगाते हैं : "सारेगम यानी / सभी प्रकार के दु:ख / प ध यानी ! पद - - स्वभाव / और / नि यानी नहीं,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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