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मूकमाटी-मीमांसा :: 57 हृदयग्राही बन पड़ा है । अपने विचारों एवं भावों की अधिकांश अभिव्यक्ति कविजी ने पात्रों के परस्पर वार्तालाप द्वारा ही की है। आध्यात्मिक साधना-मार्ग' जैसा कठिन विषय भी पात्रों की चटपटी वाक्चातुरी के कारण मनोरंजक के साथ ही हृदयस्पर्शी भी हो गया है । वार्तालाप इतना प्रभावी और प्रवाही बना है कि पाठक उसके बहाव में बहता ही जाता है। अध्यात्म, जीवन-दर्शन जैसा गम्भीर विषय भी रोचक एवं तलस्पर्शी हो गया है। आचार्यजी ने कहीं भी दार्शनिक की पीठिका पर आरूढ़ हो कर उपदेशात्मकता का सहारा नहीं लिया है, जिससे सम्पूर्ण रचना में एक भी ऐसा स्थान नहीं है जहाँ पाठक ऊब जाएँ। किसी रचना को पढ़ते समय, ‘आगे क्या है'- यह जान लेने की तीव्र उत्सुकता पाठकों में बराबर बनी रहे, यह उस रचना की सफलता का द्योतक है। 'मूकमाटी' महाकाव्य में पाठकों को प्रारम्भ से अन्त तक खींच लेने की क्षमता शत-प्रतिशत सिद्ध हुई है और इसका अधिकांश श्रेय वार्तालाप-संवाद को ही है । वार्तालाप के कारण ही सम्पूर्ण रचना का कथ्य मानों प्रत्यक्ष रंगमंच पर खेला जा रहा है, जिसे पाठक सिर्फ पढ़ता ही नहीं वरन् आँखों से देखता भी है। भाषा-शैली
'मूकमाटी' महाकाव्य में ग़जब की शब्द-चमत्कृति है। चमत्कार का कमाल हो गया है। शब्दों का सर्वसामान्य कोशगत-अर्थ तो है ही, परन्तु उसके अन्दर छिपे हुए नए-नए अर्थों को उद्घाटित कर आचार्य-कविजी ने उन्हें व्याकरण-सम्मत मान्यता भी प्राप्त करा दी है। सर्वसाधारण बोलचाल की भाषा के शब्दों को नए भावों से सार्थ बना कर उनसे पारमार्थिक भाव व्यंजित किए हैं। शब्दों के भावों को नवीन उद्भावनाओं के साथ प्रस्तुत करके चमत्कृति के साथ ही साथ उनमें से मार्मिक एवं तर्क-संगत अर्थ निकाला है । आचार्यश्री का शब्द-संग्रह मानों अपने ढंग का एक नया ही शब्दकोश है जिससे नवीन अर्थों की उद्भावना हुई है । शब्दों की रचना में 'लय' का प्राधान्य होने से मुक्त छन्दात्मक रचना भी 'गेय'-सी हो गई है। पाठक 'लय' की इसी धुन से मुग्ध होकर लगातार पढ़ता ही जाता है। अनेक स्थल तो ऐसे बन पड़े हैं कि उन्हें बार-बार दुहराने पर पाठक मजबूर हो जाता है । अपनी अनुभूति को व्यक्त करने के लिए आचार्यश्री को कहीं भी शब्द-योजना का विचार नहीं करना पड़ा है वरन् शब्द ही मानों हाथ जोड़ कर सधे हुए सैनिक की तरह चुपचाप उनके भावों का अनुसरण करते रहे हैं। शब्दों के पीछे भाव नहीं, भावों के पीछे शब्द दौड़ते हुए आते हैं और अपनी जगह ले लेते हैं। लोक-जीवन के असंख्य मुहावरों, लोकोक्तियों और सूक्तियों की इतनी भरमार है कि यह रचना मानों मुहावरा-कोश या सूक्ति-सागर बन गया है । भाषा पर इतना ज़बरदस्त प्रभाव और भाषा-शैली का ऐसा अनोखा ठाठ अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। नारी के प्रति दृष्टिकोण
आचार्यश्री ने एक ओर 'स्त्री के चुंगल में फंसे दुस्सह दुःख से कभी दूर नहीं होते' लिख कर साधना -क्षेत्र में नारी को बाधक मान कर भी दूसरी ओर उसके गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । स्त्री के लिए नारी, अबला, महिला, दुहिता आदि अनेक शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं। कविजी ने इन शब्दों के नवीन भावार्थ देकर स्त्री समाज की उदारता, सहन-शीलता, कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, शालीनता आदि गुणों का बखान कर उसे यथोचित सम्मान का स्थान प्रदान किया है। पुरुष की प्रकृति (नारी) के साथ प्रेमपूर्ण बरताव करने की सीख भी दी है। बनूठी कल्पनाएँ
__ काव्य में भाव तत्त्व और विचार तत्त्व के साथ ही साथ कल्पना तत्त्व की भी प्रधानता होती है । इसे ही कवि का कल्पना-विलास कहते हैं। कल्पना तत्त्व के द्वारा ही कवि का चिन्तन, मनन, निरीक्षण आदि कितना सूक्ष्म और गहन-गम्भीर है, इसका पता चल जाता है । कल्पना शक्ति के बल पर ही कवि अनेक कल्पना-विश्वों का निर्माण