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56 :: मूकमाटी-मीमांसा साबित होता है कि आज समाज में संस्कृति' नामक चीज़ ही नहीं रही है।
भारतीय संस्कृति में पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है, परन्तु लोभीपापी मानव इस पवित्र संस्कार को प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं। दहेज तथा अन्य कारणों के बहाने आज समाज में अनेक बहुओं को मौत के घाट उतारा जा रहा है । कहीं उन्हें जिन्दा जलाया जाता है और कहीं कुएँ में ढकेल दिया जाता है । विवाह संस्कार इन बहुओं के लिए संरक्षक नहीं वरन् भक्षक बन गया है। अनेक जन्मों का यह पावन सम्बन्ध अब लेनदेन का व्यावसायिक रूप ग्रहण करता जा रहा है। समाज की इस विदारक स्थिति से कवि को खेद होता है।
__ अपने को मनु की सन्तान समझनेवाला महामना मानव, मानव के ही साथ क्रूर बरताव कर रहा है। सेवकों से कसकर काम लिया जाता है परन्तु उन्हें उचित वेतन भी नहीं दिया जाता । पैसे देने का नाम सुनते ही इनके हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं और जो कुछ भी देते हैं वह दुर्भावना के साथ देते हैं, जो पाने वाले को पचता नहीं। इस निन्द्य व्यवहार को देखकर आचार्यजी कहते हैं-'सूखा प्रलोभन मत दो।स्वाश्रित जीवन जियो। कपटता-विश्वासघात को तिलांजली दो । शालीनता से बरताव करो । उदार अन्त:करण से दूसरों का दुःख हरण करो।'
आज समाज में धर्म का क्षेत्र भी पवित्र-पावन-शुद्ध नहीं रहा है । धर्म के नाम पर अनेक लड़ाइयों के वर्णन से इतिहास भरा पड़ा है। अलग-अलग धर्म तो परस्पर लड़ते ही हैं, परन्तु एक ही भगवान् की जय-जयकार करने वाले धर्म भी आपसी फूट एवं साम्प्रदायिकता के कारण आपस में लड़ रहे हैं। 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' यह केवल कवि-उक्ति ही रह गई है। आचार्यश्री ने इस विषय पर दो ही पंक्तियों में विचार प्रकट करते हुए लिखा है :
“धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है
शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर !" (पृ. ७३) इस प्रकार आचार्यश्री ने इस रचना में समाज के विविध अंगों पर अपने विचार अत्यन्त प्रखरता से प्रस्तुत किए हैं। समाज का सर्वांगीण निरीक्षण कर, दोषों को निकाल फेंकने और समाज उन्नत बने, इस भावना से उन्होंने समाज को सचेत-जागृत किया है । यहाँ तो केवल कुछ ही विषयों की चर्चा की है, परन्तु 'मूकमाटी' में आचार्यजी ने अनेक विषयों पर लिखा है । समूचे समाज का अन्त: एवं बाह्य विशाल चित्र प्रस्तुत किया है । इसीलिए तो इस रचना को 'महाकाव्य' कहने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए।
'मूकमाटी' की शैलीगत विशेषताएँ पात्र
इस रचना में शिल्पी (कुम्भकार) और सेठजी ये ही दो मानव पात्र हैं, बाकी सभी पात्र मूक वस्तुएँ मात्र हैं। निर्जीव पात्रों की संख्या भी काफ़ी है। कवि ने वस्तुओं की उपयोगिताओं के अनुरूप ही उनके स्वभाव की कल्पना कर उन्हें सजीव-सा बना दिया है । मूक वस्तुओं की काया में प्रवेश कर उनकी वेदना, क्षोभ, आनन्द आदि भावों को स्वर दिया है, जिससे उनकी निर्जीवता तिरोहित होकर वे जीवन्त पात्र बन गए हैं। इन निर्जीव पात्रों के वार्तालाप के माध्यम से आचार्यजी ने मानवीय स्वभाव, गुण-दोष, प्रवृत्तियों आदि का विश्लेषण किया है। इन्हीं पात्रों के माध्यम से जीवनदर्शन की अभिव्यक्ति हुई है। पर-काया प्रवेश अत्यन्त दुस्तर कर्म है जो प्रतिभासम्पन्न कवि ही कर सकता है, जिसकी निरीक्षण-शक्ति अत्यन्त गम्भीर होती है। वार्तालाप
नाटकीय ढंग का वार्तालाप इस रचना की सबसे श्रेष्ठ विशेषता है । वार्तालाप अत्यन्त चुटीला, मार्मिक एवं