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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 55 आज की राजनीति में न्याय नहीं रहा है। धन-लोलुप न्याय-दाता भी भ्रष्टाचारी हो गए हैं। धनवान् लोग धन के बल पर अपराधी होकर भी छूट जाते हैं और साधारण-जन पिटे जाते हैं, जो वास्तव में निरपराध होते हैं। न्याय-दान की भ्रष्ट नीति के सिलसिले में आचार्यश्री लिखते हैं : “प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम ।/इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) आज न्याय के क्षेत्र में भी मनमानी हो गयी । गणतन्त्र व्यवस्था नाम-मात्र की रह गयी है। कितनी खरी-खरी बात कही है कवि ने! ___ आज आतंकवादियों के झूठे-नृशंस कारनामे हम अखबार में रोज़ पढ़ते हैं। यह आतंकवाद कहाँ से आया ? क्यों आया है ? अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में आचार्यश्री ने आतंकवाद का सही स्वरूप स्पष्ट किया है : "मान को टीस पहुंचने से ही/आतंकवाद का अवतार होता है। - अति-पोषण या अति-शोषण का भी/यही परिणाम होता है।" (पृ. ४१८) 'आतंकवाद मानव को पागल बना देता है । तब उसमें शोध की नहीं, प्रतिशोध की भावना बलवती होती है, जो दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी घातक होती है। बदले की भावना से भरपूर भरा व्यक्ति अपना स्वतन्त्र दल खड़ा कर आक्रमण की तैयारी करता है । आतंकवादियों में भी असन्तुष्ट दल पैदा होता है जो आक्रमण को अन्याय-असभ्यता कहकर विरोध करता है । यह दल मानने लगता है कि यह तो न्याय की वेदी पर अन्याय का ताण्डव है । यह दल आक्रमणकारियों को समझदारी की बातें सुनाने लगता है, परन्तु अहंकारियों के गले से समझदारी की बातें नहीं उतरतीं, प्रत्युत उनका क्रोध, क्षोभ रावण की तरह अति क्रुद्ध हो जाता है । उबलते तेल के कढाव में शीतल जल की चार-पाँच बूंदों का भला क्या असर होगा!' अत्यन्त नपे-तुले शब्दों में आचार्यश्री ने आतंकवाद का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है। धन एवं सत्ता के पिपासुओं ने ही आतंकवाद को जन्म दिया है । कहीं इन आततायियों को धन देकर उकसाया गया तो कहीं गरीबों का अत्यन्त शोषण कर उन्हें आतंकवादी बनाया गया। अपराधी को प्राण-दण्ड देना चाहिए या नहीं, इस विषय पर वैचारिकों में मत-मतान्तर चलते ही रहते हैं। विश्व भर के देशों में इस पर काफ़ी बहस होती रही है । कहीं प्राण-दण्ड को नृशंस-कृत्य माना गया है तो कहीं साधारण से गुनाह के लिए अपराधी को प्राण-दण्ड दिया जाता है । आचार्यश्री ने इस विषय को लेकर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा है-'प्राण-दण्ड से औरों को तो शिक्षा मिलती है, परन्तु जिसको दण्ड दिया जाता है उसे उन्नति का अवसर ही नहीं मिलता । दूसरी बात यह है कि क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी एक अपराध है, न्याय-मार्ग से च्युत होना है।' कठिन विषय पर भी संक्षिप्त शब्दों में अपने असरकारी-मार्मिक विचार प्रस्तुत करने की आचार्यश्री की शैली बेजोड़ है। पद-दलितों के उद्धार की बातें आज देश में चल रही हैं। उद्धार के नाम पर अनेक योजनाएँ भी कार्यान्वित की गयी हैं। नीच को उच्च बनाने के अनेक उपाय सुझाए जा रहे हैं। फिर भी स्थित में विशेष सुधार नजर नहीं आता। इस पर कारगर उपाय सुझाते हुए आचार्यश्री लिखते हैं- 'केवल शारीरिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक सहयोग देने से नीच उच्च नहीं बन सकता। उसके लिए सात्त्विक संस्कार का होना आवश्यक है।' आज दुःख इसी बात का है कि नीच तो क्या = से भी गान्नित संस्कारों मे मम्कारित नहीं किया जाता । अखबारों में आए दिन जो खबरें हम पढ़ते हैं उससे
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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