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________________ 54 :: मूकमाटी-मीमांसा उसके गीत भी गाता है, परन्तु उस पथ पर वह खुद चलता नहीं है । आज का मनुष्य धर्म-तत्त्वों की चर्चा खूब करता है, उनकी उपादेयता भी सिद्ध करता है, परन्तु उन्हें अपने जीवन में नहीं उतारता, उन पर अमल नहीं करता। आज उस पथ को दिखाने वालों को पथ ही नहीं दिख रहा है। कारण, पथ-प्रदर्शक खुद उस पर नहीं चलते, वे सिर्फ दूसरों को उस पर चलाना चाहते हैं। धार्मिक विषयों पर व्याख्यान करने वाले निष्क्रिय वक्ताओं के सही स्वरूप का यह है पर्दा-फाश । कितना सही चित्र है यह (प.१५१-१५२)। ६३ और ३६ की संख्याओं को लेकर आचार्यश्री ने सामाजिक उद्बोधन के साथ ३६३ संख्या का गम्भीर अर्थ प्रस्तुत कर अपनी आन्तरिक व्यथा उद्घाटित की है । ३६ का अंक पारस्परिक कलह-संघर्ष को व्यक्त करता है। इसके आगे एक और तीन जुड़ जाने पर ३६३ मतों का उद्भव होता है, जिससे समाज में परस्पर विद्रोह छिड़ जाता है। लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं । आचार्यश्री की आन्तरिक व्यथा-वेदना यही है कि ऐसे विद्रोहियों की संख्या आज के समाज में बढ़ गयी है । समाज में पारस्परिक संगठन नहीं, अपनत्व-आत्मीयता नहीं, भाई-चारा नहीं - यही है आज के समाज का विदारक चित्र । इस स्थिति को देखकर कवि-हृदय छटपटा उठा है और प्रश्न पूछता है : । "अब शिष्टता कहाँ है वह ?/अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र ।" (पृ. २१२) 'ही' और 'भी' इन दो बीजाक्षरों को लेकर आचार्यश्री ने आज के समाज की पोल खोल दी है । वे कहते हैं'ही' पश्चिमी सभ्यता है, भी' भारतीय संस्कृति-भाग्यविधाता है। 'ही' रावण है, 'भी' राम है। 'हो' के आसपास भीड़ भले जमा हो, परन्तु 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। 'भी' से मानव की स्वच्छन्दता, मदान्धता मिटती है । सद्विचार और सदाचार के बीज 'भी' में होते हैं, 'ही' में नहीं।' कथन के अन्त में कविजी प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि 'जगत् में 'हो' मिट जाए और 'भी' की प्रतिष्ठा हो' (पृ. १७२-१७३) । 'ही' और 'भी' हमारी भाषा के ये दो शब्द हैं जिनका प्रयोग हम बोलचाल में करते रहते हैं। 'ही' शब्द में स्वार्थ, घमण्ड, अक्खड़ आदि सब दुर्गुण भरे हैं और 'भी' में अपनत्व, मेलजोल आदि गुण हैं। 'मैं ही हूँ' इस कथन में केवल अपने ही होने का अहंकार है और मैं भी हूँ' इस कथन में सब के साथ होने का प्यार-भरा भाव निहित है। आज के विश्व में 'ही' की प्रधानता है, 'भी' दब-सा गया है। अतएव मनुष्य 'ही' का प्रयोग करना छोड़ दे अर्थात् अपने स्वार्थ, अहंकार को छोड़ दे और भी' का प्रयोग करे, सबके साथ मिलजुल कर रहने का संकल्प करे । समाज में परस्पर प्रेम, मेलजोल हो-यही आचार्यश्री की भावना है । वे कहते " 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक।” (पृ. १७२) जैन धर्म के अनेकान्तवाद-स्याद्वाद को अत्यन्त समर्थ उदाहरण से समझा दिया है । आज विश्व को 'ही' का नहीं, 'भी' का प्रयोग करना है। आज के विश्व में वैषयिकता अधिक बढ़ गयी है । यह कलि-काल का प्रभाव है । वैषयिकता की तृप्ति के लिए संसार ने वैश्यवृत्ति स्वीकार कर ली है। धन को जुटाना और भोग को भोगना ही विश्व ने सीखा है । परन्तु यह वैश्यवृत्ति नहीं है, वेश्यावृत्ति है यह तो । आचार्यश्री लिखते हैं : "कलि-काल की वैषयिक छाँव में/प्राय: यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश में/वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य'!" (पृ. २१७)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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