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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 53 अत्यन्त चिन्तनशील है । देखिए इस चित्र के कतिपय रंग : "अन्त समय में/अपनी ही जाति काम आती है/शेष सब दर्शक रहते हैं दार्शनिक बनकर !/और/विजाति का क्या विश्वास/आज श्वास-श्वास पर विश्वास का श्वास घुटता-सा/देखा जा रहा है" प्रत्यक्ष !"(पृ. ७२) . आचार्यश्री के इस कथन में कितनी सच्चाई है, इसका अनुभव हम प्रत्यक्ष कर ही रहे हैं । जातीयता को नष्ट करने के नारे काफ़ी लगाए जाते हैं, परन्तु वह नष्ट होने के बजाय दिन-दिन बढ़ती ही जाती है। जाति-जाति में परस्पर सौहार्दता की भावना कहीं दिखाई नहीं देती। विजाति का कोई भरोसा नहीं रहा । जहाँ-तहाँ अविश्वास ही भरा हुआ है। विश्वास का दम घुटता जा रहा है। ऐसी हालत में अन्त समय में जाति के लोग ही सहायता के लिए दौड़े आएंगे न कि विजाति के, यह कटु सत्य है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के ढोल भी खूब पीटे जा रहे हैं। हम सब भाई-भाई हैं' से वातावरण गूंज उठा है, परन्तु प्रत्यक्ष में स्थिति विपरीत है। यहाँ ‘एक कुटुम्ब – एक परिवार' की ऐक्य-भावना ही नष्ट हो गयी है। आज स्वार्थ का बोलबाला है । यहाँ भाई ही भाई का दुश्मन बनकर उसे समाप्त करने पर उतारू हो गया है । कविजी लिखते हैं : “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है/वसु यानी धन-द्रव्य धा यानी धारण करना/आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।” (पृ. ८२) धन को ही जीवन में प्राधान्य देने से मानव अपनी मानवता को ही भूल गया है । धन-लिप्सा के कारण 'मानवता से दानवत्ता चली गई है।' यह प्रश्न आचार्यश्री को पूछना पड़ा है । वे लिखते हैं : "क्या इस समय मानवता/पूर्णत: मरी है ?/क्या यहाँ पर दानवता आ उभरी है ?/लग रहा है कि/मानवता से दानवत्ता कहीं चली गयी है ?/... 'वसुधैव कुटुम्बकम्'/इस व्यक्तित्व का दर्शन स्वाद-महसूस/इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब"!" (पृ. ८१-८२) उपर्युक्त पंक्तियों में हम देख सकते हैं कि धन-लोलुपता ने मानव को दानव बनाया है। उसकी दान-वृत्ति ही नष्ट हो गयी है । एकात्मता की भावना के दर्शन कहीं नहीं होते । इस उद्गार के पीछे आचार्यश्री की आन्तरिक छटपटाहट की पीड़ा के दर्शन होते हैं। आज का विश्व शिक्षित है, शास्त्र को पढ़ता है, देखता है। ईश्वर पर विश्वास भी रखता है। परन्तु ईश्वर का जो असर इस पर होता है वह सिर्फ 'सर' (मस्तिष्क) तक ही होता है, अन्तः (हृदय) में नहीं उतरता। इसी कारण आज का विश्व बुद्धिवादी बन गया है जो सिर्फ बुद्धि की सोचता है, हृदय की नहीं; दिमाग़ की सोचता है, दिल की नहीं। परिणामत: दया, करुणा, प्रेम, आत्मीयता आदि गुण नष्ट होते जा रहे हैं और उनके स्थान पर स्वार्थ, लिप्सा, मोह, आसक्ति आदि दुर्गुण आ बैठे हैं। आज का मानव चरण के नहीं, सर (बुद्धि) के बल पर दौड़ता है। आज भी भगवान् आदिनाथजी (ऋषभदेवजी) द्वारा प्रदर्शित पथ का अभाव नहीं है । आज का मानव उस पथ की चर्चा भी खूब करता है, उसके बखान करता है,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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