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52 :: मूकमाटी-मीमांसा ३. सूर्यास्त का समय योग का होता है, क्योंकि उस समय सुषुम्ना नाड़ी का उदय होता है। योग के समय भोग
करना शोक का कारण है। ४. एकाग्र मन से मन्त्र का प्रयोग करने से हाथोंहाथ फल भी सामने आता है। ५. 'पर' से 'स्व' की तुलना करना पराभव का कारण है, दीनता का प्रतीक है । जीवन में सन्तोष प्राप्ति के
लिए अहंकार को छोड़ना होगा । अहंकार तभी छूटता है जब 'पर' और 'स्व' में स्पर्धा नहीं होगी। कुम्भ पर अंकित शब्द- 'मैं दो गला' द्वारा आचार्यश्री 'मैं यानी अहंकार को 'दो गला'--समाप्त कर देने की
सीख देते हैं। ६. गुरुजनों को प्रवचन सुनाना दु:खदायक है, महा अज्ञान है । छोटों को चाहिए कि वे गुरुजनों से गुण-ग्रहण
करें, वही शिव-पथ है । यदि प्रसंग पड़े तो लघुजनों को गुरुजन से मिष्ट वचन युत प्रवचन सुनना, जो
दुःख-दाह को मिटाता है। ७. स्वप्न पर विश्वास रखना हानिकारक है, क्योंकि वे प्रायः निष्फल होते हैं। स्वप्न स्वयं निज-भाव का रक्षण
नहीं कर सकते तो वे औरों को क्या सहयोग देंगे। स्वप्न-दशा में जागृति के सूत्र छूट जाते हैं जिससे आत्म
साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। ८. निर्बलजनों को सताने से नहीं, बल-सम्बल देकर बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है । ९. किसी व्यक्ति की पहचान उसके शरीर से नहीं होती। उसके हृदय को छूकर ही उसकी मृदुता-कठोरता
का पता लग सकता है। (सामाजिक जीवन में यह एक अत्यन्त उपयुक्त सीख है।) १०. भगवान् की पूजा के समय पूर्ण भक्ति-भाव होना चाहिए। किसी सांसारिक प्रलोभन की इच्छा नहीं होनी
चाहिए। इच्छा केवल एक मात्र हो- 'बन्ध से मुक्ति' । ११. मन्त्र न ही अच्छा होता है, न ही बुरा । अच्छा-बुरा अपना मन होता है। स्थिर मन ही महा-मन्त्र है,
अस्थिर मन पाप-तन्त्र है । स्थिर मन ही सुख की सीढ़ी है और अस्थिर मन दुःख की। १२. पुत्र को जन्म देकर उसे दुनिया के सामने प्रस्तुत करने मात्र से माता का सतीत्व सार्थक नहीं होता । पुत्र की ___ सुषुप्त शक्ति को सत्-संस्कारों से सचेत और सशक्त-साकार करना ही उसका कर्तव्य होता है।
कहाँ तक गिनें इन रत्नों को ! जीवन को सुखी-सम्पन्न बनाने वाले ऐसे असंख्य पद इस रचना में भरे पड़े हैं। सूक्तियों और सूचनाओं का यह 'रत्नाकर' है जिसके अवगाहन से मानव-जीवन प्रसन्न हो जाएगा । आचार्यश्री की सामाजिक दृष्टि कितनी पैनी है, इसका अंदाज़ इनसे लगाया जा सकता है। ऐसे महासागर को इसीलिए तो महाकाव्य' कहने में कोई आशंका नहीं होनी चाहिए। सामाजिक स्थिति का वास्तववादी चित्रण
'मूकमाटी' महाकाव्य में आचार्यश्री ने वर्तमान सामाजिक स्थिति का भी वास्तववादी यथार्थ चित्र खींचा है। समाज की गतिविधियों पर मार्मिक टीका-टिप्पणी कर उसके सही रूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । अगणित मानकों से भरा हुआ यह समाज कितना मानवताहीन बन गया है, इसका हू-बहू चित्र यहाँ देखने को मिलता है । ऊपर से आधुनिकता का बाना पहना हुआ यह समाज अन्दर से कितना खोखला-पोला है, बुद्धिवाद का नारा लगाते हुए बुद्धि के बल पर चलने वाला यह कितना भाव-शून्य एवं हृदय-हीन बना हुआ है, इसका सही-सही चित्र यहाँ खींचा है। वर्तमान आतंकवाद के क्रूर-पाशवी कारनामों का भी यहाँ दर्शन होता है। समाज की अधोगति पर आचार्यजी ने करारा आघात करते हुए उसके स्वस्थ-प्रगत-उन्नत स्वरूप के निर्माण के कुछ उपाय भी बताए हैं। इस रचना का यह तीसरा विषय भी