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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 51 धरती के स्वभाव का उदाहरण दिया है । अतिवृष्टि के कारण धरती का वैभव सागर में बह जाता है, इसीलिए सागर 'रत्नाकर' कहलाता है। धरती का वैभव लूट कर ही सागर ने यह सम्बोधन पाया है । दूसरों की सम्पदा लूट कर संग्रह करना मोह-मूर्छा है, जिससे नीच नरक-गति प्राप्त होती है। मनुष्य को लूट कर नहीं वरन् परिश्रम करके ही आवश्यक सम्पदा प्राप्त कर लेनी चाहिए। इस लूट पर धरती कोई प्रतिकार नहीं करती, क्योंकि वह सर्व-सहा है। 'सहनशील होना ही सर्वस्व को पाना है' (पृ. १९०)। दिल में दया का भाव होना मानवता की पहचान है। दया को धर्म का मूल माना है। एक शायर ने कहा है अगर तेरे पास दया नहीं है तो समझ ले तेरे पास दिल ही नहीं है । दिल और दया का अटूट सम्बन्ध है । आचार्यश्री ने सीप और जल के मार्मिक उदाहरण द्वारा दयाभाव की महत्ता स्पष्ट कर दी है। सीप की सहायता से ही जल अपनी जड़ता को छोड़ कर मुक्ता-फल का रूप धारण करता है । जल पतन के गर्त से बचकर उत्तुंग स्थान पर जाता है। जल के इस उद्धार का कारण सीप का दया-भाव ही है । सीप ने दया दिखाकर ही जल-बिन्दु को मोती बनने में सहायता दी । इसी प्रकार मानव-जीवन में किसी प्राणी का उद्धार करना दया-धर्म है । यही मानव-जीवन का महान् कर्म है। मानव का वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन सुचारु रूप से चलता रहे, इसलिए मानव को अपनी मर्यादा में रहना होगा। सामाजिक सम्बन्धों के जो तौर-तरीके, आचरण-व्यवहार, परस्पर लेन-देन आदि के कुछ नियम होते हैं, उन्हें मर्यादा-लक्ष्मण रेखा कहा जाता है। हर व्यक्ति को इस लक्ष्मण-रेखा के बीच में रहकर ही सामाजिक व्यवहार करने होंगे। आचार्यजी इस विषय में हिदायत देते हए कहते हैं कि अपनी मर्यादा का-लक्ष्मण रेखा का कभी उल्लंघन न करो: "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता/राम ही क्यों न हों/दण्डित करेगा ही !" (पृ. २१७) ___ आज समाज में धन-संग्रह की होड़-सी लगी है। हम सब धन जुटाने में ही अपनी सारी शक्ति का व्यय कर रहे हैं। यह संग्रह-वृत्ति संग्रहणी रोग की तरह मानवों को सता रही है । अर्थ-लोलुपता के फेर में पड़कर मानव अपनी सारी मर्यादाओं को लाँघता जा रहा है। इसी प्रवृत्ति को देखकर आचार्य-कवि कहते हैं – 'अर्थ-लोलुपता का त्याग करो। कारण, जो अर्थ की चाह में फँसा, वह उसके दाह से दग्ध हो जाएगा। जो अर्थ को ही प्राण और त्राण समझकर उसमें मुग्ध होगा, तब समझना होगा कि उसे अर्थ-नीति का ज्ञान ही नहीं हुआ।' जैन श्रावकों के लिए जिन पाँच अणुव्रतों के पालन का धमदिश है उसमें 'अपरिग्रह' का अपना विशेष महत्त्व है । इसीलिए आचार्यजी ने अर्थ-लोलुपता की निन्दा की . साधु को आहार देते समय दाता-श्रावक को किस तरह बरताव करना चाहिए, इसकी सीख देते हुए आचार्यश्री लिखते हैं-'साधु को आहार देते समय दाता श्रावक को अत्यन्त सावधानी एवं विवेक से काम लेना चाहिए । आहार ग्रहण करने के लिए पात्र से प्रार्थना करें परन्तु उसका अतिरेक न करें। दासता दिखाएँ परन्तु उदासीनता न दिखाएँ । परिहास रहित मन्द मुस्कान हो, उत्साह-उमंग हो परन्तु उतावली न करें। विनय से काम लें परन्तु उसमें दीनता की गन्ध न हो । मधुर स्वर से पात्र-साधु का स्वागत करें। पात्र के ठहर जाने पर श्रावक अत्यन्त श्रद्धा-भाव पूर्वक परिवार सहित उनकी परिक्रमा कर वन्दना करें' (पृ. ३१९-३२१) । इसी प्रकार के भावों और आचरण से आहार-दान करना श्रावक का कर्म है। अधिक विस्तार में न पड़कर आचार्यश्री ने जो श्रावक-धर्म बताया है, उसे संक्षेप में कहना ही उचित होगा१. दूसरे को अपनाना, उसे अपनत्व प्रदान करना, अपने से भी उसे अधिक समझना यही सभ्यता है । यही प्राणी मात्र का धर्म है। २. भोग ही रोग का कारण है। नीरोगता के लिए भोग त्याज्य है । आत्म-कल्याण के लिए भी भोग वर्ण्य है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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