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50 :: मूकमाटी-मीमांसा परमोच्च शिखर पर पहुँचा देती है। व्यावहारिक जगत् में तो क्षमा-भाव की अनेक बार आवश्यकता पड़ती रहती है। जिसने क्षमा करने और क्षमा माँगने के भाव को अपनाया हो, उसका सामाजिक जीवन भी अत्यन्त सुलभता से व्यतीत होता है।
मनुष्य के सभी अवयवों में जीभ ही एक ऐसा अवयव है जो खाने और बोलने-दोनों क्रियाओं में काम करती है । अत: उस पर काबू पाना, उसको जीतना अत्यन्त आवश्यक है । खाते वक्त जीभ- रसना को संयमित न रखने से खाया हुआ अमृत भी विष बन जाता है, अनारोग्य का कारण बन जाता है । ठीक उसी तरह बोलने में भी साधारण-सी ग़लती हो जाने पर बना हुआ काम भी बिगड़ जाता है । कई बार मनुष्य आवेश में आकर अंटसंट बोल देता है, परिणामत: वह औरों की नज़र से गिर जाता है। ऐसा व्यक्ति सम्मान का पात्र भी नहीं बन सकता। इसीलिए आचार्यश्री ने अत्यन्त उपयुक्त ऐसी सीख श्रावकों को दी है कि जो व्यक्ति जीभ को जीतता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं और उसका जीवन सुखमय बीतता है।"
शरीर भोग्य होने के कारण उसे शासन-नियन्त्रण में ही रखना चाहिए। शरीर को किसी का शासक नहीं होने देना है। शरीर पर पुरुष का ही शासन हो । पुरुष गुणों का पुंज होने से तथा वह संवेदक-भोक्ता होने के कारण उसी की सम्पूर्ण सत्ता शरीर पर होनी चाहिए। शरीर स्वयं कुछ नहीं करता, वह जो कुछ करता है मन के आदेश पर ही करता रहता है । अत: शरीर पर शासन का मतलब है मन पर शासन होना । जिसने मन की, चेतन की पहचान कर ली, वह मन की शक्ति के बल पर शरीर को अपने शासन में रख सकता है। काया का सम्मान करने वाला व्यक्ति भोग के पंक में फँस जाता है। इसीलिए आचार्य-कवि ने कहा है : “चेतन की तुम/पहचान करो...!/'''काया का मत/सम्मान करो !'' (पृ. १२८-२९)।
आज संसार में चारों ओर वैमनस्य की आग फैली हुई है । मानव ही मानव के खून का प्यासा बन गया है । ऐसी अमानवीय अवस्था में मानव-जीवन सुख की साँस नहीं ले सकता । मानव-जीवन सुखी-सम्पन्न बने, इसलिए आचार्यकवि ने अत्यन्त मूल्यवान् सूचना देकर मानव को सजग कर दिया है । वे कहते हैं-'मानव अपने जीवन को रण नहीं बनावे अर्थात् बक-झक में, कलह-क्लेश में वह न पड़े। मानव सदय बनकर, सदाशय दृष्टि से वह संसार पर अमृतमय वष्टि करे। मानव को केवल 'स्व' का ही अंकन नहीं करना है वरन 'पर' का भी मूल्यांकन करना है। दसरों का भी उसे ध्यान रखना है' (पृ. १४९)। मनुष्य जब दूसरों का भी ध्यान रखकर उसका सही मूल्यांकन करने लग जाएगा तब अपने आप 'स्व' का अभिमान गल जाएगा । तब संघर्ष का मूल ही निर्मूल हो जाएगा। __सामाजिक जीवन में करुणा-भाव अत्यन्त आवश्यक है । परन्तु कहावत है 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'। आचार्यश्री ने करुणा का ज़िक्र करते हुए सुन्दर उदाहरण से यही समझाया है कि--'करुणा की अति भी अच्छी नहीं। खाद के बिना फसल नहीं लहलहाती, परन्तु सिर्फ खाद में ही बीज बोए जाएँ तो वे जल जाएँगे। माटी में खाद-पानी अनुपात से डाल कर ऊपर ही ऊपर बीज बिखेर देने पर भी वे अंकुरित नहीं होंगे, जब तक कि माटी का हाथ उन पर नहीं होगा। परन्तु माटी का यह भार भी बीजों पर अधिक पड़ जाए तो बीजों का दम घुट जाएगा' (पृ. १५३-१५४) । करुणा के बारे में भी यही सत्य है । दूर खड़े रहकर करुण भाव का आलाप करना, मात्र प्रदर्शन है। उससे करुणा के पात्र को कोई लाभ नहीं मिलेगा। अति सक्रिय करुणा से करुणा-पात्र दब जाएगा। इसलिए मर्यादित करुणा का प्रयोग ही ठीक रहेगा जो करुणापात्र के सम्मान को बनाए रख सकेगा।
पारिवारिक जीवन एवं सामाजिक जीवन में 'सहनशीलता' गुण की नितान्त आवश्यकता है । सहनशीलता के कारण संघर्ष के अनेक बीज सहज ही नष्ट हो जाएँगे । आचार्यश्री ने इस गुण को अपनाने की सीख देते हुए सागर और