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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 49 असावधानी से जीव-हिंसा की सम्भावना है, जो अजानते क्यों न हो, परन्तु कर्म-बन्ध का कारण बन जाती है। समस्त प्राणी-जगत् के प्रति दया भाव रखना ही सही धर्म है । कहा भी है-'धम्मो दयाविसुद्धो' (पृ. ७०) एवं 'दया धर्म का मूल है' (पृ. ७३)। किसी भी कार्य का प्रारम्भ 'ओंकार' के, महामन्त्र नवकार' के स्मरण से किया जाए। प्रत्यक्ष में शरीर भले ही काम करता हुआ दिखाई दे, परन्तु अप्रत्यक्षत: उसके साथ हमारा मन भी कार्य करता रहता है । अत: ओंकार स्मरण से भाव-शुद्धि होती है जिससे कार्य करते वक्त हिंसा-अहिंसा का ध्यान रखने में हम सहज सावधान हो जाते हैं। व्यावहारिक जीवन में अनेक प्रकार के व्यवधान आते ही रहते हैं। अनेक बार मनुष्य इन व्यवधानों-व्यत्ययों से गड़बड़ा जाता है। इस हड़बड़ी में मनुष्य का काम करने का हौसला परास्त हो जाता है। कार्य अधूरा रह जाने की भी सम्भावना रहती है । परिणामत: कार्य के पूर्णत्व के समाधान से मनुष्य वंचित रह जाता है । आचार्यश्री ने सूचित किया है-'प्रत्येक व्यवधान का समाधान होकर सामना करना अन्तिम समाधान को पाना है।' कार्य में आने वाले विघ्नों से डरना क्या ? विघ्नों का सामना करने से ही कार्य-सिद्धि सम्भव है। - मानव के पास दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं- एक तन की तथा दूसरी मन की। 'तन की शक्ति कण भर की होती है, मर्यादित होती है, परन्तु मन की शक्ति मन भर की होती है, अमर्यादित होती है, अत: अपनी मानसिक शक्ति को पहचानना होगा । मानसिक शक्ति के बल पर ही संसार में बड़े-बड़े काम सम्पन्न हुए हैं। मानव के इस मन की छाँव में ही. मन के आश्रय में ही मान बढता है. अहंकार पलता है। इसलिए न-मन होना आ श्यक है, जिससे मनुष्य नम्र बनता है, नमन करता है । नम्र मानव में बदले की-प्रतिशोध की भावना नहीं रहती । प्रतिशोध का भाव दल-दल के समान होता है, जिसमें हाथी भी फँस जाता है । बदले का भाव अग्नि की तरह होता है, जो तन को तो जलाता ही है, परन्तु भव-भव तक चेतन को भी जलाता है। बदले का भाव राहु के समान है, जिसके गाल में चेतनरूप तेजस्वी सूर्य भी अपना अस्तित्व खो देता है । बदले या प्रतिशोध की भावना मानव को हिंसक बनाती है, अत: मनुष्य को इससे सदैव बचना चाहिए । बदले की भावना मनुष्य की मानसिक शक्ति को दुर्बल बना देती है । संसारीगृहस्थ-श्रावक को ऐसा कोई विरोधी भाव अपने मन में प्रविष्ट नहीं करना है, जिससे मन की शक्ति घट जाए। ____ मन के गुलाम बनने से भी मन की शक्ति का ह्रास होता है । मन का गुलाम व्यक्ति तन के भोगों में व्यस्त रहता है। ऐसे व्यक्ति की जो कामवृत्ति है, तामसता और काय-रता है, वही सही मायने में भीतरी कायरता है । यह भीतरी अर्थात् मन की कायरता ही मनुष्य को भोग-लिप्त बना देती है । इसीलिए मनुष्य को अकाय में रत हो जाना चाहिए। यह कठिन अवश्य है परन्तु प्रयत्न-साध्य है । काया की ओर दौड़ने वाले मन को संयम की बागडोर से काबू में लाने का प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा भोग-लिप्त काया मन को पूर्णत: दुर्बल बना देगी। किसी के प्रति जाने-अनजाने भूल हुई हो, अपराध हुआ हो तो मानव को चाहिए वह उसकी क्षमा-याचना करे। कारण, क्षमा वह भाव है जो सामने वाले को सौम्य बना देता है । क्षमा वह पुट है जो क्रोध की अग्नि को शान्त कर देता है, जिससे प्रतिशोध का भाव नष्ट हो जाता है । जैन धर्म में क्षमावली/क्षमावाणी का विशेष महत्त्व है । पर्युषण महापर्व की क्रियाओं में अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ क्रिया 'खम्मामि सव्व-जीवाणं' की होती है । सम्पूर्ण संसार से मैत्री का नाता जोड़ने तथा किसी भी जीव के साथ वैर-भाव न रखने की उच्च क्षमता क्षमा-भाव में निहित है। 'क्षमा माँगने वाले के अन्त: के सभी कलुष को धो डालती है और जिससे क्षमा माँगी जाती है, उसे भी पूर्णत: अपनत्व के नाते से जोड़ देने की क्षमता रखती है । क्षमा माँगना साधारण कृत्य नहीं है । और दूसरे को क्षमा करना तो मानवता की उत्तुंग वेदी है। श्रावकों में परस्पर प्रेम, सद्भाव, भाईचारा, मित्रता एवं अपनत्व का भाव जगाने वाली 'क्षमा' मानव को जीवन के
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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