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48 :: मूकमाटी-मीमांसा वस्तुओं का मूल्य समान होता है अर्थात् सोने की मिट्टी और गिट्टी में उसे कोई अन्तर महसूस नहीं होता। उसके लिए दोनों का मूल्य समान है। इस प्रकार समता भाव की जागृति ही अन्तिम सत्य है, यही मौलिक तत्त्व है। साधक जब तक शरीर की ओर देखता है, शरीर को ही पुष्ट एवं द्युति-दीप्त बनाना चाहता है, तब तक उसे विदेह-पद की यानी मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती। साधक का ध्येय शरीर को नहीं आत्मा को पुष्ट बनाना है । आत्म-सत्ता की सही-सही पहचान, आत्मा का सही-सही ज्ञान ही मोक्ष है।
साधना में दृढ़ता की बड़ी आवश्यकता है, मन का मज़बूत होना भी आवश्यक है । आचार्यश्री लिखते हैं'साधक का स्वभाव काँटे की तरह दृढ़-कठोर होना चाहिए । सुकुमार फूलों के संग रहकर उनके मुलायम स्पर्श को पाकर भी काँटा दृढ़ रहता है। उसकी उपासना को चोट पहुँचने पर भी वह अपनी कठोरता को नहीं छोड़ता। सुकुमार लतिकाएँ काँटों को आलिंगन देकर उनको अपनी साधना से च्युत करने का प्रयत्न करती हैं, परन्तु काँटों का 'शील' भंग नहीं होता, वे रागी (अनुरागी) नहीं बनते, उन पर स्खलन का कोई दाग़ नहीं लगता। अत: 'राग' नहीं, 'वैराग्य' भाव को ही अपनाना होगा, जिससे भव-पार हुआ जा सकता है । आसक्ति (राग) साधक में 'मद' भर कर उसका 'दम' तो लेती है, और वैराग्य उसमें 'दम' (शक्ति) भरकर उसे 'निर्मद' (निरहंकारी) बना देता है' (पृ. ९९-१०२) ।
साधना के मार्ग पर चलने वाले आचार्यश्री ने उसकी कठिनता एवं दुर्गमता को ठीक-ठीक अनुभव किया है। साधना पथ की कठिनता को दूर करने की अनुभूति भी उन्होंने पाई है। इसीलिए तो उन्होंने इस मार्ग की ओर जाने वाले साधकों को अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक सभी बातें समझाने की भरसक कोशिश की है।
'मूकमाटी' यह माटी या कुम्भ की नहीं, साधक के साधना-जीवन की कहानी है, जो साध-दीक्षा से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक फैली हुई है । साधक के सम्पूर्ण जीवन का लेखा-जोखा है इसमें । मोक्ष-प्राप्ति की 'आस' से व्याकुल सार्थक परम्परागत महाकाव्य के धीरोदात्त नायक से कम श्रेष्ठ नहीं है। कठोर साधना के द्वारा आत्म-विरोधी तत्त्वों से लड़ने वाला साधक भी महाकाव्य का नायक बन सकता है । कितनी संघर्षमय है उसकी साधना की यह कहानी ! साधना-मार्ग की तमाम बारीकियों का विस्तृत विवेचन करनेवाला यह काव्य इसीलिए 'महाकाव्य' है । श्रावक-जीवन के आदर्श
'मूकमाटी' मुख्यत: आध्यात्मिक साधना का मार्ग प्रशस्त करने वाली रचना है। साधु-दीक्षा ग्रहण करने के बाद ही साधना शुरू होती है । अत: 'मूकमाटी' का अधिकांश विवेचन सन्त-साधुओं के लिए अत्यन्त उपयुक्त है । जैन धर्म के चतुर्विध संघ में श्रावक-श्राविकाओं की संख्या सबसे अधिक है। उनका जीवन भी धर्म के मार्ग पर अग्रसर हो, उनके जीवन में भी धर्म की जागृति हो, उनका आचरण भी शुद्ध-सात्त्विक बने, इसी उद्देश्य से आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' के विवेचन में श्रावक जीवन के बहुमूल्य आदर्श जगह-जगह बताए हैं। एक प्रकार से साधना मार्ग की ही यह पूर्व तैयारी है । जीवन के ये आदर्श श्रावकों एवं श्राविकाओं के लिए भी अत्यन्त उपयुक्त हैं।
'अहिंसा' जैन धर्म का परमश्रेष्ठ, मूलभूत तत्त्व है, जिसकी नींव पर ही जैन धर्म का तत्त्वज्ञान खड़ा हुआ है। अपने को जैन कहलाने वाले हर व्यक्ति का जीवन अहिंसामय ही होना चाहिए । इसलिए इस मौलिक तत्त्व की ओर आचार्यश्री ने पाठकों का ध्यान खींचा है । 'मूकमाटी' की अनेक पंक्तियाँ अहिंसा-धर्म का उद्घोष करती हैं। कूप से पानी निकालने का ही प्रसंग देखिए, जहाँ आचार्यजी ने अहिंसा पालन की ओर सबका ध्यान खींचा है। कूप में बालटी छोड़ते वक्त खूब सावधानी से, धीमी गति से काम लेने की उन्होंने हिदायत दी है। पानी में स्थित असंख्य जीवों की हिंसा न हो, इसकी ओर ध्यान दिलाया है। केवल पानी निकालने का ही प्रसंग नहीं वरन् हमारे सभी व्यवहारों और आचारों में हम सदैव इस बात का स्मरण रखें कि हमारी कृति से किसी जीव को पीड़ा न पहुँचे, जीव की हत्या न हो । कार्य की