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मूकमाटी-मीमांसा :: 47
साधक अपने जीवन में तभी सफल होगा जब उसकी गति का साथ उसकी मति भी दे देगी और मति भी वह जो मान-अहंकार से विमुख होती है। परन्तु गति के साथ यदि अहंकार की प्रमुख कारण रति साथ देगी तो विनाश अवश्यम्भावी है । अत: साधक को चाहिए कि वह रति से बचे और अहंकार रहित मति को जीवन की गति में लगा दे, तभी विकास सम्भव है।
साधना के क्षेत्र में ध्यान का अत्यन्त महत्त्व है। ध्यान किसे कहते हैं ? अपने आप को खोना ही ध्यान है। अपने आप को खोने के भी दो मार्ग हैं-एक भोग का और दूसरा त्याग का । प्रथम, भोग-मार्ग से जाने वाला साधक विकल्प से मुक्त होकर शव के समान पड़ा रहता है तो दूसरे योग-मार्ग से जाने वाला साधक शिव के समान खरा उतरता है। ध्यान-क्रिया दाहक होती है अवश्य, परन्तु उसी ध्यान-दाह से वैषयिक संग नष्ट होते हैं और आत्मा पर लगा जंग भी जलकर भस्म होता है । ध्यान-दाह के प्रवाह में अवगाहन करके भी आह तक नहीं निकलनी चाहिए। विश्व का तामस भी भर जाए तो भी निश्चिन्त रहना चाहिए, क्योंकि कालान्तर में 'ता'म'"स' ही 'स''म'"ता' प्रदान करता है। अवा में अग्नि-परीक्षा देकर ही कुम्भ मज़बूत बनता है। उसी प्रकार ध्यान-दाह में तपकर ही साधक मुक्ति का हक़दार बनता है।
“अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक/किसी को भी मुक्ति मिली नहीं,
न ही भविष्य में मिलेगी।" (पृ. २७५) आध्यात्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य विषयों और कषायों का वमन करना अर्थात् उन्हें बाहर फेंक देना है। वमन की क्रिया अरुचि से ही होती है। जब तक विषयों और कषायों के प्रति मन में रुचि है, तब तक इनका वमन होना असम्भव है । अत: साधक का प्रयत्न कषायों के प्रति मन में अरुचि पैदा करना है । जब ये विषय और कषाय, जो आत्मा को मैले बनाते हैं, निकल जाएँगे तभी साधक को मुक्ति का रसास्वाद प्राप्त होगा । जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ है उसे वस्तु के सही स्वाद का आनन्द नहीं मिलता । ठीक उसी प्रकार जब तक विषयों-कषायों के प्रति मन में रुचि भरी है तब तक शान्त रस का स्वाद आत्मा को मिलना कठिन है । कषायों के प्रति अरुचि तभी पैदा होगी जब व्यक्ति जीने की इच्छा से ही नहीं वरन् मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठेगा । जिस रसना ने मृत्यु का भय भी अपने में नहीं रखा अर्थात् जो मृत्युंजय हो गयी है, वही रसना रस का आस्वादन ले सकती है। जो विषयों का रसिक है, भोगों-उपभोगों का दास है, इन्द्रियों का चाकर है, तन और मन का गुलाम है, वही पर-पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है । यही महापाप है। विषयों की दासता तब मिटती है जब 'स्व' को 'स्व' के रूप में और 'पर' को 'पर' के रूप में जान लिया जाए। यही सही ज्ञान है।
"बाहर यह/जो कुछ दिख रहा है/सो मैं "नहीं"हूँ
और वह/मेरा भी नहीं है।" (पृ. ३४५) यह स्थिति ही सच्चे ज्ञान की स्थिति है। 'स्व' का यह ज्ञान बाहर की आँखों से देखने से नहीं मिलता । बाह्य आँखें 'मैं' को देख ही नहीं सकतीं। अत: साधक अपनी आन्तरिक आँखों से 'मैं' को देखने-समझने का प्रयत्न करे । एक बार 'मैं को समझ लिया कि बाह्य विषयों-कषायों के प्रति अरुचि पैदा होगी जो साधक को शान्त रस का आस्वाद लेने में सहायक होगी।
जो साधक आत्म-सत्ता की ओर बढ़ता रहता है उसमें समता-भाव जागृत होता जाता है। उसके लिए भौतिक