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46 :: मूकमाटी-मीमांसा
आत्मा से जब सभी कषायें हट जाती हैं, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि विकार उत्पन्न करनेवाले भाव नष्ट हो जाते हैं, तभी पुण्य-निधि का प्रतिनिधि भाव अर्थात् 'ज्ञान' का जागरण होता है । इस 'बोध-भाव' के आगमन से अनुभूति का प्रतिनिधि शोध-भाव प्रकाशित होता है। यही है आत्मा की शुद्ध अवस्था । इस अवस्था में बाधक है 'मोह'। आत्मा की शुद्ध अवस्था के लिए मोह का दूर होना आवश्यक है । मोह ही माया को आमन्त्रित करता है । अपने को छोड़ कर अर्थात् 'स्व' के अतिरिक्त पर-पदार्थ से प्रभावित होना मोह है। सांसारिक जीवन में ऐसे असंख्य बाह्य पदार्थ हैं जिनसे साधक का मन प्रभावित/विचलित होने की सम्भावना होती है । इसीलिए आचार्यश्री ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूचना दी है कि पर-पदार्थ से प्रभावित नहीं होना है। इसके विपरीत सबको छोड़कर अपने में अर्थात् 'स्व' में भावित होना ही मोक्ष है, वही शुद्धात्मा की स्थिति है।'
'रूप' का प्यासा बनना ही वासना है, जो आत्मा को कलंकित करती है। साधना के क्षेत्र में 'अरूप' का प्यासा बनकर ही क़दम बढ़ाना है । वासना की उपासना छोड़कर, रूप की ललक और परस की आस छोड़कर भौतिक शृंगार विषय से दर रहना आवश्यक है। 'रूप' की प्यास का मतलब है 'काम' की उपासना । साधना के क्षेत्र में 'काम' की नहीं, 'राम' की लगन लगनी चाहिए । अर्थ की ओर नहीं, परमार्थ की ओर लगन बढ़नी चाहिए। परमार्थ अतुलनीय है, उसे अर्थ की तुला में तौलना हास्यास्पद है।
आध्यात्मिक जीवन की सफलता तभी सम्भव है जब चंचल मन शान्त हो जाए। साधना क्षेत्र में यह चंचल मन ही गड़बड़ी पैदा कर देता है, सब कुछ बिगाड़ देता है । मन की चंचल वृत्ति के कारण भावों में उथल-पुथल थम जाती है, जिनसे इन्द्रिय रूपी घोड़े बेतहाशा दौड़ने लगते हैं । अत: मन को संयम की बागडोर से काबू में रखना होगा, तभी भावों की उथल-पुथल थम सकती है । भाव-सागर तरंगहीन-समतल तभी हो सकेगा जब हृद्देश में अन्य सभी रसों का अन्त होकर शान्त रस की प्रधानता होगी । आचार्यश्री ने शान्त रस को रस-राज तथा रस-पाक की उच्च वेदी पर स्थापित किया है। व्यावहारिक भोगात्मक जीवन में शृंगार रस को रस-राज माना गया है, परन्तु आध्यात्मिक जीवन में शान्त रस की प्राप्ति कर लेना ही साधक का कर्तव्य माना गया है । शान्त रस की उपलब्धि ही आध्यात्मिक यात्रा की मंज़िल है । सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस है । अन्य सभी रस भोगात्मक हैं जो जीवन को अस्थिर-अशान्त बना देते हैं। मनुष्य अपने जीवन में शान्ति चाहता है, अत: शान्त रस को प्राप्त करने के लिए सभी रसों का अन्त करने की साधना करनी होगी।
"परिधि की ओर देखने से/चेतन का पतन होता है/और
परम-केन्द्र की ओर देखने से/चेतन का जतन होता है ।" (पृ. १६२) इन पंक्तियों के द्वारा आचार्य-कविजी ने साधना के लक्ष्य की ओर संकेत किया है। साधक की दृष्टि बाह्य की ओर नहीं वरन् केन्द्र की ओर अर्थात् संसार के भोगों की ओर नहीं, आत्म-तत्त्व की ओर होनी चाहिए । बाह्य दृष्टि चेतन को चंचल बनाकर पतन के गर्त में ढकेल देती है और आत्मकेन्द्रित दृष्टि चेतन को शान्त-स्थिर बनाकर उसका जतन करती है । निरन्तर घूमने वाले संसार-चक्र पर स्थित मानवी जीवन जब परिधि की ओर यानी बाह्य की ओर देखता है तब उसका चेतन भ्रमण करने लगता है, परिणामत: जीवन यूँ ही बिना कुछ लाभ के विफल हो जाता है । जब साधक की आत्मा केन्द्र में रमण करती है तभी सुख की अनुभूति होती है । प्रत्येक जीवन संसार-चक्र पर आरोहित है । जो जीवन बिना भ्रम में पड़े इस घुमावदार रास्ते से बेहिचक निकल पड़ता है, जो जीवन के चक्कर के डर से गतिमान् होने से हिचकता है, वह शिखर पर पहुँच ही नहीं पाएगा । जीवन के रहस्य को समझने के लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक है, क्योंकि जीवन के रहस्य का यूँघट पुरुषार्थ द्वारा ही खुल सकता है।