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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 45 साधना का मार्ग यानी आग की नदी है, जिसे बिना नौका के ही अपने बाहुओं के बल पर तैरते हुए पार करना होता है, तभी तीर मिलता है । इसीलिए बिना सम्भ्रम में पड़े दृढ़संकल्प के साथ आगे बढ़ने से भय भाग जाता है । अभय की स्थिति ही विजय का प्रारम्भ है । साधक के लिए तप अत्यन्त आवश्यक है। बिना तप किए आन्तरिक ताप नष्ट नहीं होता, अज्ञान का नाश और ज्ञान की लब्धि नहीं होती। "तन और/मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर जला-जला कर राख करना होगा/यतना घोर करना होगा तभी कहीं चेतन-आत्मा/खरा उतरेगा!" (पृ. ५७) बिना तपे-जले विशुद्ध परस का अनुभव सम्भव नहीं है। इस प्रकार साधना-मार्ग की कठिनाइयों से साधक को अवगत कर उसका हौसला बढ़ाने का प्रयत्न भी आचार्यजी करते हैं। माटी से कुम्भ तभी बनता है जब माटी में मिले हुए विरोधी तत्त्व अर्थात् कंकड़ वगैरह उससे अलग कर दिए जाएँ। इसीलिए तो माटी को छाना जाता है । यही अवस्था साधना के पूर्व आत्मा को भी करनी पड़ती है। जब तक आत्मा के साथ विरोधी तत्त्व चिपके हुए रहते हैं, तब तक उसे मोक्ष के दर्शन सम्भव नहीं होंगे। इसीलिए आचार्य-कविजी ने वर्ण-शुद्धि पर विशेष जोर दिया है। वे कहते हैं-'जीवन में उन्नत अवस्था की प्राप्ति के लिए वर्ण-शुद्धि आवश्यक है । वर्ण का अर्थ रंग-रूप, या आकार-प्रकार नहीं, वरन् चाल-चलन, ढंग, स्वभाव आदि आत्मिक गुण हैं । आत्मा में लगे कषाय-कलंकों के वर्ण-संकर दोष को नष्ट करने का मतलब है इन आत्म-विरोधी कषायों को निकाल फेंकना । यही वर्ण-शुद्धि है।' यहाँ आचार्यजी ने वर्ण का सम्बन्ध जन्म या जाति से नहीं अपितु व्यक्ति के कर्म से जोड़ दिया है, आत्मा के गुणों से जोड़ दिया है । 'वर्ण-संकर दोष आत्मोन्नति में बाधक ही नहीं, आत्मा को अवनति की ओर ले जाता है। इस विचार को अधिक स्पष्ट करने के लिए उन्होंने बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया है। गाय का क्षीर (दूध) और आक का क्षीर ऊपर से विमल-धवल ही दिखाई देते हैं, दोनों का वर्ण (रंग) एक ही है, परन्तु जब वे परस्पर मिल जाते हैं तब गाय का क्षीर फट जाता है ।' आक का वर्ण (गुण) गाय के वर्ण में विकृति पैदा कर देता है । क्रोध, काम, लोभ, राग, द्वेष इत्यादि कषायों को आत्मा से अलग करना ही आत्मा की वर्ण-शुद्धि है। - साधना के लिए अनुकूलता की प्रतीक्षा करना भी व्यर्थ है। प्रतीक्षा करने से राग-भाव की वृद्धि होती है। वैसे ही प्रतिकूलता का प्रतिकार भी न करें क्योंकि उससे द्वेष-भाव पुष्ट होता है।' सार यह है कि साधना-मार्ग में अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, दोनों को सम-भाव से ग्रहण करना होगा। उसके लिए संयम की बड़ी आवश्यकता है । राग-द्वेष विरहित एवं संयत अन्त:करण से संयम की राह पर चलना होगा। "राही बनना ही तो/हीरा बनना है ।" (पृ. ५७) साधना-मार्ग में सबसे आवश्यक है माया से छुटकारा पाना । जब तक साधक का मन काया की ओर झुका रहता है तब तक जीव माया के फन्दे में कसा रहता है। जब माया की उपेक्षा होती है, माया की ओर दुर्लक्ष्य होता है तब सन्मति की प्राप्ति होती है । माया के कारण ही गति, मति, स्थिति विकृत हो जाती है । इसके परिणामस्वरूप आत्मा के मौलिक स्वरूप एवं स्वभाव का ज्ञान नहीं होता। मन को शरीर की ओर से हटा लेना, शारीरिक रोगों से मन को अलिप्त रखना ही माया के चंगुल से आत्मा को बचाना है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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