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________________ 44 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रज्वलित करना, पुरुष की सुषुप्त चैतन्य शक्ति को जागृत करना ही सन्त अपना कर्तव्य समझते हैं । इस काव्य के रचयिता आचार्य विद्यासागरजी मानते हैं कि शुद्ध-सात्त्विक भावों से सम्पन्न जीवन ही धर्म है । कुरीतियों का निर्मूलन कर युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर उसे भोग से योग की ओर मोड़कर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखने के सात्त्विक उद्देश्य से ही इस रचना का निर्माण हुआ है (देखिए-'मानस तरंग, पृ. XXIV)। उद्देश्य की पूर्ति के लिए माटी और कुम्भ की यह कथा तो केवल रूपक/प्रतीक मात्र है। आचार्यश्री को यहाँ कोई कथा नहीं कहनी है। उन्हें तो अनेक भवों में, असंख्य पर्यायों में, जन्म-जरा-मरण के चक्र में भटकती हुई अनन्त दुःखों से घायल एवं व्यथित बनी आत्मा को उद्धार का मार्ग बताना है । जीवन के लक्ष्य से भटकी हुई आत्मा को आध्यात्मिक साधना का विश्लेषण करके मुक्ति का मार्ग दिखाना ही आचार्यश्री का प्रमुख उद्देश्य है। रचना के प्रारम्भ में ही महाकाव्य-सदृश प्रात:कालीन प्रकृति-दृश्य का जो सजीव वर्णन किया गया है, उसे पढ़ कर उनकी वर्णन शैली की क्षमता तथा उत्तुंग प्रतिभा के दर्शन होते हैं। परन्तु प्रकृति-वर्णन में वे अधिक रमे नहीं। वे झट अपने विषय-विवेचन पर आ गए हैं। सरिता-तट की माटी अपने पतित जीवन को कोसती हुई आन्तरिक व्यथा व्यक्त करती है। यह माटी अनन्त पर्यायों में भटकती तथा सांसारिक द:खों से व्यक्ति बनी आत्मा का प्रतीक है. जो इस चक्र से छुटकारा पाने के लिए लालायित हो उठी है । माटी के मुख से अत्यन्त आर्तता पूर्वक करुण भावों से लबालब भरा हुआ यह प्रश्न आत्मा ही पूछती है कि इस पर्याय की इति कब होगी? संसार में भ्रमण करने वाली हर आत्मा का यह सनातन-शाश्वत प्रश्न रहा है कि जीवन का उद्धार होगा या नहीं? होगा तो कब और कैसे ? इन्हीं प्रश्नों से हतोत्साह बनी आत्मा पद, पथ और पाथेय की माँग करती है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में लिखा गया है 'मूकमाटी' काव्य । साधनापक्ष की तमाम बारीकियों का अनेक उदाहरणों सहित विश्लेषण-विवेचन करके साधक को मुक्ति के मार्ग पर चलने को प्रेरित करना ही रचना का मुख्य उद्देश्य है । आचार्यजी लिखते हैं- साधना के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है 'आस्था': ० "...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं शास्ता होकर/सम्बोधित करता साधक को साथी बन साथ देता है।" (पृ. ९) "आस्था के बिना आचरण में/आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं। फिर/आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है, ...निष्ठा की फलवती/प्रतिष्ठा प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है,... प्रतिष्ठा बहती - बहती/स्थिर हो जाती है जहाँ वही तो समीचीना संस्था कहलाती है।" (पृ. १२०) इस प्रकार आस्था ही क्रम-क्रम से बढ़कर सच्चिदानन्द संस्था की अव्यय अवस्था पाती है। अत: आस्थापूर्वक मन से साधक बिना किसी आलस्य के साधना में निरन्तर प्रयत्नशील रहे। प्रारम्भ में कठिनाइयाँ अवश्य आती हैं, परन्तु बाद में वे ही पथ की सहचरी बनकर सफलता प्रदान करती हैं। साधना का मार्ग अत्यन्त कठिन होता है, जिस पर चलते हुए बड़े-बड़े साधक भी घुटने टेक देते हैं। कठिनाइयों से डरकर अनेक साधक साधना को अधूरा छोड़कर भाग जाते हैं। भागनेवालों से आचार्यजी कहते हैं : "परीषह-उपसर्ग के बिना कभी/स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी/त्रैकालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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