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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 43 तपाकर सेठजी के सेवक को दे देता है । पूज्य मुनिराज के आहार-ग्रहण के समय वही कुम्भ उपयोग में आता है। संकट की सूचना पाकर कुम्भ सेठजी के परिवार सहित वन का आश्रय लेता है और संकटों का सामना कर फिर उसी स्थान पर आता है जहाँ कुम्भकार माटी लेने आया है। बस हो गयी कथा । प्रासंगिक कथाएँ भी इनी-गिनी हैं। विशेष उल्लेखनीय है मूक वस्तुओं का वार्तालाप, निर्जीव पदार्थों का सजीवीकरण । हाँ, महाकाव्य-सा निसर्ग-वर्णन, ऋतु-वर्णन तथा सभी रसों का वर्णन कृति में अवश्य है, परन्तु वह भी अपनी भव्यता के साथ नहीं । सम्पूर्ण रचना भी सिर्फ चार खण्डों में विभाजित है। संक्षेप में यह कि परम्परागत महाकाव्य के नियमों और लक्षणों की कसौटी पर ही यदि 'मूकमाटी' रचना को कस कर परखा जाए तो एक परीक्षार्थी की तरह स्पष्ट कहना होगा कि 'मूकमाटी' महाकाव्य नहीं है। मौलिक प्रश्न यह है कि क्या 'मूकमाटी' के महाकाव्यत्व को सिद्ध करने के लिए परम्परागत महाकाव्य के लक्षणों की चौखट का ही सहारा लेना होगा ? विशेष बात यह है कि ये लक्षण भी अति प्राचीन समय के बने हुए हैं। इसका आशय यह नहीं कि प्राचीन होने से उन्हें कालबाह्य मानकर छोड़ दिया जाए, परन्तु यह भी नहीं कि केवल प्राचीन होने से उन्हें ही स्वीकार किया जाए। अत: नवीन मूल्यों, पद्धतियों, दृष्टियों और आवश्यकताओं के अनुसार काव्य के नवीन लक्षणों एवं विशेषताओं को अपना लेना प्राचीन का अवमान हरगिज़ नहीं है। हर समय की अपनी माँग होती है, जिसे पूर्ण करना प्राचीन का अवमान नहीं, नूतन का स्वागत है। यह रचना किसी गृहस्थ कवि की नहीं वरन् गृहस्थ जीवन का त्याग कर, दीक्षा ग्रहण कर आत्मोद्धार के कठिन, जटिल, कण्टकाकीर्ण मार्ग पर चलने वाले कर्मठ साधु की रचना है। सामान्य कवि की रचना और सन्त-साधु की रचना में मौलिक अन्तर होता है । सन्त सर्वप्रथम भक्त होता है, साधना मार्ग पर चलने वाला साधक होता है और बाद में कवि । अपनी साधना ही उसका मुख्य लक्ष्य होता है, कवि-कर्म नहीं । अपने सन्त कर्तव्य के माध्यम से ही उसके अन्दर का कवि मुखरित होता है । काव्य के प्रांगण में कवि स्वर-संचार कर सकता है परन्तु सन्त की अपनी मर्यादाएँ होती हैं। कवि के लिए जो भोग्य होता है, सन्त के लिए वही त्याज्य । उदाहरणस्वरूप सभी कवियों ने शृंगार को रसराज कहा है परन्तु इस रचना में आचार्य-कवि ने शृंगार की अवहेलना कर शान्त रस को प्रधानता दी है। उनकी दृष्टि में शारीरिक शृंगार नहीं वरन् आत्मिक शृंगार अर्थात् आत्मशान्ति ही मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। कर्तव्य की वेदी पर बैठे आचार्य-कवि ने अपने विषय और उद्देश्य को ही प्राधान्य देकर महाकाव्य के परम्परागत लक्षणों के निर्वहण में अपना बहुमूल्य समय एवं शक्ति व्यय करना उचित नहीं समझा । अत: इस रचना के महाकाव्यत्व का मूल्यांकन परंपरागत लक्षणों की कसौटी पर नहीं वरन् अन्य आधुनिक लक्षणों एवं विशेषताओं की कसौटी पर करना होगा। 'मूकमाटी' का विषय, उसके निवेदन के पीछे आचार्य-कवि का आन्तरिक उद्देश्य, आचार्यश्री की सामाजिक दृष्टि तथा मानवी जीवन के कल्याण की उनकी तीव्र भावना आदि काव्य के भाव पक्ष के साथ ही उनका शब्द-संग्रह, काव्य कलात्मकता, शैली एवं शब्द-चमत्कृति आदि कला पक्ष का भी विचार करना होगा। 'मूकमाटी' का विषय और उद्देश्य दरअसल, सन्तकवियों की रचना का विषय अध्यात्म ही होता है । सन्त अपनी साधना द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक सत्य को उद्घाटित करना चाहता है । उसका लक्ष्य भौतिक सुख नहीं, आत्मिक सुख होता है । अध्यात्म के रास्ते पर चलने की इच्छा रखने वाले अज्ञजनों के अन्त:करण में धर्म की ज्योति जलाकर उन्हें जीवन की सार्थकता का मार्ग दिखाना ही सन्त का प्रमुख कार्य होता है । रागातिरेक से संसार के भौतिक सुखों से चिपके हुए जीवों में वैराग्य भाव
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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