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मूकमाटी-मीमांसा :: 41 कितनी मुद्राएँ, कितनी छवियाँ धारण करती हैं। अपने मन्तव्य को प्रकट करने की कवि की सबसे प्रिय मुद्रा है शब्दों को विपर्यस्त कर नितान्त नई व्यंजना का संचार । यह केवल शब्द- कौतुक ही नहीं है वरन् दीर्घ साधना से जीवन लब्ध मूल्यों को सामान्यजन तक सम्प्रेषित करने की उत्कट इच्छा का परिणाम भी है । कवि के जीवनानुभवों, आध्यात्मिक उपलब्धियों तथा सामान्य जीवन की कदर्थताओं से संघर्षरत एक सामान्य व्यक्ति के जीवन प्रसंगों और निश्चेष्ट जीवन मूल्यों में जितना अधिक अन्तराल होगा, कवि को अपने कथ्य के समुचित सम्प्रेषण में उतनी ही कठिनता का अनुभव होगा पर समर्थ कवि इस कठिनता से न तो आतंकित होता है और न ही विचलित । कबीर ने अपने उच्च जीवनानुभवों को उलटबाँसी के माध्यम से इस प्रकार सम्प्रेषित किया कि समाज के तथाकथित निम्नातिनिम्न वर्ग को भी वे जीवनानुभव साधारणीकृत हो सके । आचार्य मुनि विद्यासागर की आध्यात्मिक जीवनानुभूतियों में सामान्यजन की प्रतिभागिता सम्भव नहीं है पर कवि विद्यासागर समाज-सम्पृक्त अपने गहन और जीवन्त स्पन्दनों को शब्दों के शीर्षासन द्वारा इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि उनका एक प्रामाणिक और जीवनदायी रूप हमें सहज ही हृदयंगम हो जाता है । लाभ को भला, राख को खरा और राही को हीरा कहना शब्दों का शीर्षासन नहीं तो और क्या है ? 'शंकर्स वीकली' के सम्पादक व्यंग्यकार शंकर ने पं. जवाहर लाल नेहरू के सर्वाधिक प्रिय आसन शीर्षासन' पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि उलटी दुनिया को सीधा देखने का एक मात्र उपाय है कि स्वयं उलटे होकर उसे देखना । कवि विद्यासागरजी भी उलटी दुनिया को और उसके विकृत जीवन मूल्यों को सीधा करने के लिए शब्दों के शीर्षासन से काम लेते हैं।
खड़ी बोली हिन्दी के काव्य भाषा के रूप में कितने संस्करण हो सकते हैं -- यह जानना साहित्य के अध्येता के लिए जितना रोचक है, उतना उपयोगी भी। खड़ी बोली का एक रूप 'हरिऔध'जी के 'चुभते चौपदे' का है तो एक 'निराला' की 'राम की शक्तिपूजा' का। 'बच्चन' की 'मधुशाला' की हिन्दी उसका नितान्त नया तेवर है। 'मुक्तिबोध' की 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' एक अनगढ़, रूक्ष, हाँफती हुई भाषा का उदाहरण है तो 'अज्ञेय' की 'दीप अकेला' एक शान्त, अभिजात, मन्थर भाषा, मुद्रा प्रकट करता है, 'रघुवीर सहाय' की 'दयावती का कुनबा' अखबारी भाषा के काव्यात्मक कल्पान्तरण का उदाहरण है । आचार्य कवि विद्यासागर अपनी कविताओं में खड़ी बोली का ऐसा मॉडल प्रस्तुत करते हैं जो न तो खड़ी बोली की प्रकृति का उल्लंघन करता है और न ही उसे आरोपित काव्याच्छाद प्रदान करता है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक तक आते-आते हिन्दी खड़ी बोली का जो स्वरूप है, वह कवि विद्यासागरजी को स्वायत्त है । भाषा की प्रकृति का उच्छेद अथवा उसका उल्लंघन भी एक प्रकार की हिंसा ही है। कवि श्री विद्यासागरजी इस हिंसा से स्वयं को नितान्त असम्पृक्त रखते हैं। हिन्दी काव्य भाषा को उसकी सम्पूर्ण स्वायत्तता एवं समग्र स्वास्थ्य में प्रयुक्त कर आचार्य-कवि ने नए क्षितिजों का उद्घाटन किया है।
_आधुनिक हिन्दी काव्य के विस्तृत एवं सम्पन्न परिदृश्य में आचार्य कवि विद्यासागरजी की मूकमाटी' 'कामायनी' के बाद की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, प्रासंगिक एवं उदात्त काव्योपलब्धि है -- इसमें सन्देह नहीं।
पथ पर चलता हैसत्पय--पथिक वर मुडकर नहीं देखता तनसे भी, मनसे भी।