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________________ 40 :: मूकमाटी-मीमांसा होकर उनके नैतिक युद्ध में एक विचार-योद्धा की भाँति सम्मिलित है । एक निर्विकार इन्द्रियजित्, वासनामुक्त व्यक्ति की जनपक्षधरता का यह काव्यात्मक निदर्शन अत्यन्त उदात्त और आस्थाप्रद है। नारी के प्रति कवि के मन में बहुत सम्मान का भाव है । वह मध्यकालीन सन्तों की तरह नारी को 'अघ की खान' नहीं मानता। ईसाई धारणा के अनुसार वह स्त्री को पाप का मूल' मानने के पक्ष में नहीं है। वह स्त्रियों के विभिन्न अभिधानों की सम्यक् व्याख्या करता है और उसके भीरु, नारी, महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, माता, अंगना आदि प्रत्ययों का बड़ा ही रोचक काव्यत्वमय और संवेदना सम्पन्न निरूपण करता है । एक शान्त निरुद्विग्न वाणी में, स्त्री पक्ष के अधिवक्ता के रूप में इस चिरशोषिता, उपेक्षिता, अवमानिता के प्रति अभिव्यक्त कवि की यह वाणी कितनी प्रबुद्ध, कितनी आधुनिक और कितनी नैष्ठिक है ! “स्वीकार करती हूँ कि/मैं अंगना हूँ/परन्तु,/मात्र अंग ना हूँ... और भी कुछ हूँ मैं !/अंग के अन्दर भी कुछ/झाँकने का प्रयास करो, अंग के सिवा भी कुछ/माँगने का प्रयास करो।" (पृ. २०७) श्रम के प्रति कवि की अनन्य निष्ठा उसे एक नई काव्य सार्थकता प्रदान करती है । लगता है कवि यहाँ गाँधी और मार्क्स का समन्वय कर रहा है और नितान्त नए स्वर में विश्व की श्रमजीवी विराट् मानवता के समर्थन में ऊर्ध्वबाहु उद्घोष कर रहा है : “परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है।" (पृ.२११-२१२) उपभोक्ता संस्कृति के विरोध में कवि का यह स्वर आज के दिग्भ्रमित विश्व को सच्ची राह का संकेत करने वाला आशामय स्वर है। 'मूकमाटी' की कथा अत्यन्त विरल है। पात्र भी वास्तविक नहीं, अध्यवसित हैं। मिट्टी जैसे तत्त्व को कथा का मुख्य आधार बनाकर कवि ने संस्कृति के उन उदात्त, जीवनपोषी तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण किया है जो आज के भौतिकताआहत और अवमूल्यन-त्रस्त मानव-जीवन के लिए एक मात्र संजीवन है । माटी, कुम्भकार, शिल्पी, जल, मछली, राजा, बिजली, बालटी, कुआँ, काँटे, फूल, लेखनी कवि के हाथों में पड़कर बिलकुल नया अर्थ देने लगते हैं और लगता है कि कवि की उद्भावना के बिना हम उनके वास्तविक मर्म को जान ही नहीं पाते । आचार्य अभिनव गुप्त ने साधारणीकरण के प्रसंग में जिस घट-दीपक-न्याय की बात कही है, लगता है, आचार्य कवि विद्यासागरजी ने हमारी संवेदना को आच्छन्न करने वाले राग-द्वेषयुक्त घटावरण को दूर कर हमें वस्तुओं, मूल्यों और मनोभावों के वास्तविक व्यक्तित्व से परिचित करा दिया है । 'मूकमाटी' साधारणीकरण की प्रक्रिया को एक नितान्त अभिनव अर्थ में उदाहृत करता है । 'मूकमाटी' एक ऐसे सन्त कवि का काव्य है जिसके रसास्वादन के लिए हमें परम्परागत काव्यशास्त्र की नई व्याख्या करनी होगी। भाषा पर 'मूकमाटी' के कवि का असाधारण अधिकार है । वह उसके संकेतों पर न जाने कितनी भंगिमाएँ,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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