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मूकमाटी-मीमांसा :: 37 समीक्षा से विराम लेने के पूर्व यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि समकालीन कविता के क्षेत्र में भी 'मूकमाटी' ने अपने को रेखांकित किया है और आचार्यश्री एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप काव्य क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो गए हैं। उनके प्रमुख काव्य-संग्रह 'नर्मदा का नरम कंकर', 'डूबो मत, लगाओ डुबकी', 'तोता क्यों रोता ?' अष्टम-नवम दशक में ही प्रकाश में आए हैं । परन्तु विडम्बना यह रही है कि वे एक वर्ग विशेष तक ही सीमित रहे हैं, अन्यथा विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के 'समकालीन कविता की भूमिका में, जगदीश चतुर्वेदी के 'आज की हिन्दी कविता' तथा प्रताप सहगल-दर्शन सेठी के 'नवें दशक की कविता यात्रा' जैसे काव्य-संग्रहों में उनकी अभिव्यक्ति को स्थान अवश्य मिलता। फिर भी एक ओर छायावादी प्रसाद की 'कामायनी' (१९३५), दिनकर की 'उर्वशी' (१९६१), तथा पन्त के 'लोकायतन' (१९६४) के बाद 'मूकमाटी' (१९८८) को उस काव्य-श्रृंखला में जोड़कर अब हम 'अध्यात्म प्रबन्ध चतुष्टय' को प्रस्थापित कर सकते हैं तो दूसरी ओर नवें दशक के दौरान प्रकाशित हुए काव्य परिदृश्य में उसे कविता के विकास में नए आयाम के रूप में देखा जा सकता है । अभी हाल में प्रकाशित समकालीन हिन्दी कविताएँ' (सं.रामदरश मिश्रा/श्याम सुशील), 'नवें दशक के प्रगतिशील कवि' (सं. याद. के. सुगन्ध) तथा 'त्रयी-३' (सं. जगदीश गुप्त) संकलनों में आज का यथार्थ सामाजिक चित्र प्रस्तुत हुआ है। इनमें यदि 'मूकमाटी' में खिंचे कुछ परिदृश्य भी सम्मिलित कर दिए गए होते तो वह निस्सन्देह समकालीन कविता का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ बन जाता । यह जानते हुए भी कि 'मूकमाटी' काव्य समकालीन कविता की परिपाटी से बिलकुल हटकर लिखा गया है । मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि 'मूकमाटी' के कवि ने कविता को एक विशिष्ट मुहावरा दिया है जिसमें प्रतीक में छिपा आतंकवादी परिवेश और जीवनानुभवों की वास्तविकता की टकराहट बड़े प्रभावक ढंग से अभिव्यक्त हुई है । इस अभिव्यक्ति में शिल्प का स्पर्श पाकर कविता चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । सामाजिक दायित्व और मानवीय मूल्यों के मुद्दों पर कवि की वेदना और मर्मान्तक टिप्पणियाँ भी जीवन के हाशियों पर अमिट रेखाएँ बन गई हैं, जिन पर सुभग जीवन की सफलता के चित्र अंकित हैं। सामाजिक परिस्थितियों से प्रतिबद्ध कवि की चिन्ता भी वहीं प्रतिबिम्बित होती दिखाई देती है। उनका कथ्य समकालीन कवियों से भी कहीं अधिक बेजोड़, विविधता पूर्ण, सदाचारमय और बहुआयामी है जिसमें उन्होंने दर्शन और अध्यात्म को समवेत रूप में उतारा है और व्यक्ति के जीवन को कलात्मक ढंग से सँवारा है । 'मूकमाटी' महाकाव्य का यही प्रदेय है जो अपने क्षेत्र में दीपस्तम्भ जैसा सदैव पथदर्शक बना रहेगा।
इस प्रकार 'मूकमाटी' महाकाव्य आधुनिक काव्याकाश में एक ऐसा देदीप्यमान नक्षत्र है जो आधुनिक हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक नया मान और नया परिवेश लेकर प्रस्तुत हुआ है । वह हताशा, पराजय और कुण्ठा की बजाय एक सजग पुरुषार्थ को प्रतिबिम्बित करता है, आध्यात्मिक सृजनात्मकता की व्याख्या करता है, उपादान और निमित्त शक्तियों की दर्शन दुरूहता को स्पष्ट करता है, आदर्शवादी समाज की संरचना की दृष्टि देता है, सदाचरण की प्रतिरक्षा करता है और देता है वह जीवन दृष्टि जो व्यक्ति या साधक को अपवर्ग की श्रेणी में बैठा देता है । आधुनिकता की परम्परा से बिलकुल हटकर 'मूकमाटी' महाकाव्य ने सामुदायिक चेतना की पृष्ठभूमि में आत्मिक, आध्यात्मिक अभ्युत्थान को जिस रूप में उन्मेषित किया है वह दरअसल बेजोड़ है । इसलिए 'मूकमाटी' नयी कविता का सशक्त हस्ताक्षर है। उसमें आधुनिक जीवन-बोध की सचेतनता है, नए प्रतीकों, बिम्बों और यथोचित शब्दावली के माध्यम से मनोवेगों का विश्लेषण है, युगीन काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग होने पर भी युगीन सन्दर्भ से सम्पृक्त होने के कारण रूढ़िमुक्तता-सी दिखाई देती है।
पृ. 313 लो, जनकार्य तितोनीने आवासप्रांगामें
और नटभीमतिका कामकुम्मलेसा रोमा
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