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________________ 36 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रभाव ने कविता के छन्द पर और भी प्रभाव छोड़ा और बलाघात ने भी। 'मूकमाटी' में ये सारे प्रयोग देखे जा सकते हैं। 'मूकमाटी' मूलत: मुक्तक छन्द में रचित महाकाव्य है जिसमें भाव, विषय और प्रसंग के अनुकूल तुकान्त, अतुकान्त, दोहा तथा अन्य पारम्परिक छन्दों को समाहित किया गया है। उदाहरण के तौर पर -(१) दोहा-'पंकज से नहीं पंक से' (पृ. ५०-५१, ३२५), (२) वसन्ततिलका- ‘देते हुए श्रय...' (पृ. १८५), (३) सम मात्रिक छन्द'चेतन की इस...' (पृ. १६), (४) करिमकरभुजा- 'वही गात है' (पृ. ४५६), (५) विषम मात्रिक छन्द (पृ. १०२, २००) आदि । इन छन्दों में संगीत अपने पूरे लय और ताल के साथ चलता रहता है और सहजानन्द का सरस प्रवाह प्रवाहित होता रहता है। भाषा-शैली ___ अभिव्यंजना शिल्प के इन सारे तत्त्वों को तुलनात्मक दृष्टि से 'मूकमाटी' में निहारें तो हम पाएँगे कि मूकमाटी' का अभिव्यंजना शिल्प अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए है । कवि की मातृभाषा कन्नड़ है पर शुद्ध खड़ी बोली के प्रयोग में वह पूर्ण निष्णात है । पाठक को कहीं भी ऐसा भान नहीं हो पाता कि वह अहिन्दी भाषी का काव्यपाठ कर रहा है । म.प्र. के बुन्देलखण्ड अंचल में काफी समय बिताने के कारण कतिपय देशी शब्द अवश्य देखे जा सकते हैं पर 'करडी' जैसे सम्भवत: कन्नड़ शब्दों के साथ वे और भी अधिक अभिव्यंजक बन जाते हैं। भाषा पर तत्सम शब्दों का प्रभाव उसे व्यवस्थित और परिष्कृत बना देता है । अन्त्यानुप्रासों के आग्रह से भी कोमलता और प्रवाह/क्षमता में कोई बाधा नहीं आती, शैली में निखार और प्रसाद गुण बना रहता है, बोलचाल के मुहावरे और कहावतें- 'आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव/तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव ! (पृ. १३३); दाल नहीं गलना (पृ. १३४); आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का/कूवत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का (पृ. १३५); माटी, पानी और हवा/सौ रोगों की एक दवा (पृ. ३९९); पूत का लक्षण पालने में (पृ.१४, ४८२); बायें हिरण/ दायें जाय- लंका जीत/राम घर आय (पृ. २५); मुँह में राम/बगल में छुरी' (पृ. ७२)- आदि भाषा को परिमार्जित कर देती हैं, शब्द की लक्षणा और व्यंजना शक्ति उसे और भी सूक्ष्म बना देती है, भाषा की चित्रमयता और ध्वन्यात्मकता कवि की संवेदना को सरलतापूर्वक अभिव्यक्त करती दिखाई देती है । अनुप्रास के सातत्य ने संगीतात्मकता को सुरक्षित रखा है, भाषा के साथ सर्वत्र अर्थ की चमत्कारिकता तथा सार्थकता जुड़ी हुई है, जीवनानुभूति की तलस्पर्शिता, सम्प्रेषणता और साधारणीकरण जैसी कोई समस्या यहाँ नहीं है । पारिभाषिक शब्दावली और सूत्रों में समाहित अर्थ को सामान्य जन की भाषा में समझाने के लिए कवि प्रयत्नशील भी दिखाई देता है तथा विषय के अनुसार शब्दों का चयन हमारा विशेष ध्यान आकर्षित करता है । अहिंसा और सदाचरण की पृष्ठभूमि में शान्त रस के स्थायीभाव निर्वेद ने माटी की अदम्य शक्ति को भी प्रभावक ढंग से अभिव्यंजित किया है। इस प्रकार आधुनिक काव्य श्रृंखला में 'मूकमाटी' महाकाव्य हर दृष्टि से अनुपम मणिमाला के मौक्तिक रूप में गुंथा हुआ है। उसका अभिव्यंजना शिल्प एक बेजोड़ कड़ी है जिसका दर्शन श्रमण संस्कृति पर आधारित है । निमित्त और उपादान की व्याख्या की पृष्ठभूमि में रचित यह महाकाव्य हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है । प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी वर्मा आदि कवियों के काव्यसंग्रहों और तार सप्तक' जैसे काव्य-संग्रहों को जिस प्रकार भूमिका की आवश्यकता पड़ती रही, उसी प्रकार 'मूकमाटी' को भी उसके रचयिता की ओर से 'मानस तरंग' लिखकर अपने कथ्य को स्पष्ट करना पड़ा । दर्शन के साथ ही रत्नत्रय की व्यावहारिक उपयोगिता को दिखाकर कवि ने प्रस्तुत महाकाव्य को व्यक्ति के जीवन के साथ घनीभूत रूप में जोड़ दिया है । यही उसकी प्रासंगिकता है और यही उसकी मौलिकता है (पृ.४३६)।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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