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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 35 शब्दालंकार चमत्कार मूलक होते हैं। इनमें अनुप्रास भाषा को मधुर और संगीतमय बना देता है और यमक शब्दचित्र को प्रस्तुत करता है । 'मूकमाटी' में ये दोनों अलंकार भरे पड़े हैं। प्रसाद, पन्त, निराला से भी अधिक इनका प्रयोग 'मूकमाटी' के कवि ने किया है । जहाँ तक अर्थालंकारों के प्रयोग की बात है, उसमें अप्रस्तुत योजना अधिक लोकप्रिय रही है । यह औपम्यमूलकता प्रारम्भ में तो परम्परागत उपमानों के साथ चलती रही पर द्विवेदी युग के बाद नए-नए उपमानों ने जन्म लिया और साठोत्तरी कविता तक आते-आते तो उनमें बाढ़-सी लग गई । 'मूकमाटी' में भी यद्यपि परम्परागत या शास्त्रबद्ध उपमानों का प्रयोग नहीं हुआ है पर जो उपमान आए हैं उनमें वीतरागता ही नज़र आती है। उदाहरणत: रीतिकालीन कवि का बादल काजल के पहाड़' या हाथियों जैसे दिखाई देते हैं तो छायावादी कवि को वे जलाशय में खिले हुए कमल, चौकड़ी भरते मृग, मदोन्मत्त वासव सेना, स्वर्ण हंस, बन्दर आदि जैसे लगते हैं। 'मूकमाटी' के कवि को उसमें ये सब नहीं दिखाई देता । उसे तो बदली बस साध्वी-सी लगती है और प्रभाकर की प्रभा उससे प्रभावित होती दिखती है तो प्रभाकर का प्रवचन प्रारम्भ हो जाता है (पृ. १९९-२००) । मानवीकरण के ऐसे प्रयोग 'मूकमाटी' में बहुत प्रभावक सिद्ध हुए हैं। अन्य अर्थालंकारों के प्रयोग भी सार्थकता लिए हुए हैं। शान्त रस ने उन्हें और भी सार्थक बना दिया है। ___ अलंकार-विधान की पृष्ठभूमि में कल्पना की गम्भीरता और अभिव्यक्ति की प्रांजलता ने काव्य को और भी रमणीय और रसात्मक बना दिया है। काव्य का प्रारम्भ ही उपमा और उत्प्रेक्षा से होता है। तृतीय खण्ड तक पहुँचतेपहुँचते उनमें और सघनता आ जाती है (पृ. १९१-१९२) । कवि की कल्पना है कि सागर का संकेत पाकर तीन बदलियाँ गागर भरकर सर्य को प्रभावित करने निकल पड़ी हैं (प. १९९-२००)। राह से ग्रस्त सर्य कवि को कभी सिन्ध में बिन्दु-सा लगता है तो कभी माँ की गहन गोद में शिशु-सा, कभी वह दुर्दिन से घिरा दरिद्र गृहस्थ-सा लगता है तो कभी तिलक विरहित ललना-ललाट-सा । इस सन्दर्भ में कवि ने अनेक कल्पनाएँ की हैं (पृ. २३८-२३९)। इस प्रकार कवि की ढेर सारी कल्पनाएँ 'मूकमाटी' में देखी जा सकती हैं। सागर में विष का विशाल भण्डार क्यों मिलता है ? धरती सर्वसहा क्यों होती है ? मेघमाला से मुक्ताओं की वर्षा क्यों होती है ? सागर में बड़वानल क्यों उत्पन्न होता है ? प्रभाकर दिनभर क्यों भटकता है ? राहु-ग्रस्त सूर्य कैसा लगता है ? आदि प्रश्नों का समाधान सुन्दर कल्पनात्मक ढंग से किया है । श्लेषादि अलंकारों के विषय में हम पीछे कह ही चुके हैं। अलंकार के साथ रसविधान भी सम्बद्ध है। कवि मिट्टी से आजानु सने शिल्पी के वर्णन के प्रसंग में उसे विविध रूप से देखता है और उसी दृष्टि में वह वीर, हास्य, रौद्र, भयानक, शृंगार, बीभत्स, करुणा, वात्सल्य और शान्त रस के स्वरूपों पर बड़ी गम्भीरता से विचार करता है (पृ. १३०-१४९)। उसकी विचारधारा के अनुसार करुणा और वात्सल्य रसों का अन्तर्भाव शान्त रस में हो जाना चाहिए (पृ. १४९-१६०) । इसे हम विस्तार भय से स्पष्ट नहीं कर रहे हैं। छन्द-विधान कविता की वाचकता छन्द के बिना नहीं हो पाती । द्विवेदी युग तक संस्कृत के वर्णिक और मात्रिक छन्दों का प्रयोग होता रहा पर धीरे-धीरे प्रसाद, पन्त, निराला आदि छायावादी कवियों तक आते-आते उनके प्रयोग में कमी होती गई। छायावादोत्तर काल में दिनकर को छोड़कर प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण कवियों ने परम्परागत छन्दों पर आधारित नए छन्दों या मुक्त छन्द में अपनी काव्य-रचना की है। बाद में मात्रिक छन्दों ने गीतों में परिणत होकर नाना रूप धारण किए और नए-नए छन्दों का विकास हुआ । अन्तर्वर्ती अनुप्रास और अन्त्यानुप्रास का प्रयोग भवानीप्रसाद मिश्र और श्रीकान्त वर्मा आदि जैसे कवियों ने प्रारम्भ किया । मुक्त छन्द कवित्त की वर्णसंख्या को अस्वीकार नहीं करता पर बलाघात के अनुसार छन्द बनाए रखता है । गिरिजा कुमार माथुर ने मुक्त छन्द का पूरा विधान रचा है । मुद्रण-कला के
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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