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________________ 32 :: मूकमाटी-मीमांसा पन्त का 'लोकायतन' (१९६४ ई.)-ये तीनों काव्य अध्यात्म-प्रबन्धत्रयी के रूप में प्रस्थापित हुए हैं । चेतना के स्वपर उन्नायक आचार्य विद्यासागरजी ने इसके बाद अपनी अनूठी आध्यात्मिक कृति 'मूकमाटी' (१९८८ ई.)की रचना कर उक्त प्रस्थानत्रयी की मणिमाला में एक और अपरिमित ज्योतिर्मयी मणि को गुम्फित कर दिया है । इस सुन्दर आकलन को हिन्दी साहित्य अपनी धरोहर के रूप में सदैव एक दीपस्तम्भ मानता रहेगा।" श्रीमती जैन ने इसे रूपक काव्य कहा है । मैं इसमें दार्शनिक विशेषण और जोड़ देना चाहूँगा । अमूर्त भावों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में जब भाषा विराम लेने लगती है तब कवि रूपक और प्रतीक का आश्रय लेता है। साधारणत: रूपक और प्रतीक में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता । पर बारीकी से देखने पर यह अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि रूपक में उपमान-उपमेय की अभिन्नता तथा तद्रूपता रहती है पर प्रतीक में उपमान-उपमेय (प्रस्तुतअप्रस्तुत) की सत्ता नहीं रहती । वहाँ तो उपमान में उपमेय अन्तर्भूत होकर उपमान ही प्रतीक की स्थिति को स्पष्ट करता है । इसके बावजूद इतनी गहराई में जाए बिना इतना तो कहा ही जा सकता है कि माटी एक प्रतीक बनकर कवि की दृष्टि में सदैव बनी रही है जो इस तथ्य को उद्घाटित करती है कि यदि अनुकूल निमित्त मिल जाएँ तो व्यक्ति अपने चरम आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आचार्यश्री ने मृदु माटी के कथा-रूपक द्वारा प्रतीकीकरण कर जिस शाश्वत सत्य को अभिव्यंजित किया है वह अनुभूतिपरक है और एक विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना से आपूर है । उसमें उन्होंने मानवीकरण का आरोपण कर तादात्म्य स्थापित कर दिया है और जड़ तथा चेतन को अध्यात्म तत्त्व के सूत्र में बाँध दिया है । अनुभूति की प्रांजलता ने काव्य को इतना साकार कर दिया है कि साधारणीकरण की पुनीत सरिता में अवगाहन किए बिना कोई सहृदय पाठक रह नहीं सकता। भावात्मक और साधनात्मक तत्त्वों के सुन्दर समन्वय ने काव्य को और भी गौरवान्वित कर दिया है। लोकोत्तर अनुभूति भी उसमें प्रतिबिम्बित होती हुई दिखाई देती है। जब प्रतीक की बात आती है तब यह भी ध्यातव्य है कि 'मूकमाटी' के प्रतीक एकदम निराले हैं। जायसी के अधिकांश प्रतीक-सूर, साकी, सुरा आदि शुद्ध इस्लामी हैं ; मीरा और सूर के प्रतीक प्रेम भक्ति से सम्बद्ध हैं- चकई, मीन, पतंग आदि प्रेम की व्यंजना करते हैं; बिहारी, मतिराम, केशव, सेनापति आदि रीतिकालीन कवियों ने चम्पक, मालती,चन्दन, अशोक, कमल आदि वृक्षों और पौधों में कलात्मकता का ही रूप देखा है; प्रसाद, पन्त जैसे आधुनिक कवियों के प्रतीकों ने रचनात्मकता को और आगे बढ़ाया है पर आचार्यश्री विद्यासागरजी के मछली, बालटी, रस्सी आदि प्रतीकों में जो पैनी और गम्भीर दृष्टि भरी है जीवन-दर्शन के सूत्रों के साथ, वह अन्यत्र दिखाई नहीं देती। औपनिषदिक प्रतीकों में बिम्बग्रहण की प्रवृत्ति अवश्य देखी जाती है पर जिस विस्तृत भावभूमि का स्पर्श 'मूकमाटी' के प्रतीकों में होता है वह वहाँ भी अनुपलब्ध है। ये प्रतीक व्यक्ति के आत्मनिर्माण की भावना को ऊपर उठाने में मदद करते हैं। चिदानन्दानुभूति की पृष्ठभूमि में कल्पनाओं में भी स्व-पर चेतना का जागरण सूत्र भरा हुआ है यहाँ । सत्यं-शिवं-सुन्दरम् की पृष्ठभूमि में इस काव्य के ज्ञानवाद ने प्रगतिवाद की भावभूमि को एक नया ही आध्यात्मिक दर्शन दिया है जो जीवन-निर्माण की दिशा में अधिक मूल्यपरक बन जाता है। दार्शनिक विचारणा के उन्मेष को संस्कृतनिष्ठ भाषाशैली ने और भी आकर्षित बना दिया है। ___ काव्य में सरसता और सार्वजनीनता लाने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है । इसमें समान गुण-धर्म वाली अनेक वस्तुओं के बोध के लिए एक वस्तु को प्रस्तुत किया जाता है । 'अमूर्त' के मूर्त वर्णन में भी इसका प्रयोग होता है । वह एक भावना प्रधान तत्त्व है । हर देश, साहित्य और संस्कृति में विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग विविध भावों को अभिव्यंजित करने की दृष्टि से होता आ रहा है । स्वस्तिक और ओंकार शुभ और कल्याण के प्रतीक हैं जिनका प्रयोग
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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