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मूकमाटी-मीमांसा :: 31
से उन्हें हमदर्दी है, आदर है । इसीलिए परम्परागत नारी के पर्यायार्थक शब्दों का आलोचनात्मक अर्थ न कर. उनकी प्रशंसात्मक व्याख्या की है (पृ. २०१-२०९)। कवि की यह भी अवधारणा है कि पुरुष में जो भी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती हैं उनका अभिव्यक्तीकरण नारी पर ही आधारित है। नारी के बिना पुरुष अधूरा है । उसमें वासना नहीं, सुवास है। पुरुष उसकी पवित्रता को दूषित करता है, फिर भी वह पावस बरसाती है, उसका पथ प्रशस्त करती है (पृ. ३९२३९४)। रूपक तत्त्व और प्रतीक-विधान
माटी जैसी उपेक्षित जड़ वस्तु का आधार लेकर कवि ने रूपक के माध्यम से यह उद्घाटित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया है कि संसार के प्रत्येक पदार्थ में ऊपर उठने की क्षमता है। उसमें उपादान शक्ति है, बस, उसे किसी निमित्त की आवश्यकता है जो उसे ऊपर उठाने में कारण बन सके । हाँ, पूरी इस जीवन प्रक्रिया में, साध्य और साधन में, यथार्थ पवित्रता होनी चाहिए । पवित्र लक्ष्य की प्राप्ति में बाधाएँ आ सकती हैं पर उनके समक्ष किसी को घुटने नहीं टेकना चाहिए । कवि को आश्चर्य है कि आज के मानव पर इसका असर क्यों नहीं हो रहा है। व्यक्ति चारित्र से दूर क्यों होता चला जा रहा है ? (पृ. १५१-१५२) । माटी से कुम्भ और मंगल कलश तक की यात्रा 'मूकमाटी' महाकाव्य का वर्ण्य विषय है । उपादान और निमित्त के दर्शन को स्पष्ट करना ही इस काव्य का लक्ष्य रहा है। इससे ईश्वर को सृष्टिकर्ता, सुख-दुःखदाता आदि मानने वाली विचारधारा का खण्डन स्वयमेव हो जाता है। इसी के साथ ही सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और शैक्षणिक जगत् में व्याप्त कुरीतियों को निर्मूल करना ही इसका अभिधेय रहा है । कवि ने स्वयं सशक्त शब्दों में यही सब यथाकार और तथाकार बन जाने की आकांक्षा में अभिव्यक्त किया है :
"मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं। और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं। इस लेखनी की भी यही भावना है-/कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक/जागृत "जीवित "अजित !" (पृ. २४५) काव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ और विषयानुसार प्रयुक्त हुई है। कवि की मातृभाषा हिन्दी नहीं, कन्नड़ होने पर भी उसका इतनी मनमोहक भाषा में काव्य का सृजन एक विशिष्ट अभिनन्दनीय प्रयास है। निर्मुक्त छन्द में रचित होने पर भी उसकी रसात्मकता में कमी नहीं आई। कवि की धारणा है कि शान्त रस के बिना काव्य वैसे ही लगता है जैसे शीतल चन्द्रिका से विरहित रात होती है या बिन्दी से विरहित अबला होती है (पृ. ३५१) । समीक्षात्मक दृष्टि से देखा जाए तो प्रस्तुत महाकाव्य का प्रधान रस शान्त ही है । आध्यात्मिकता और दार्शनिकता इसकी मूल आत्मा/भावना है। इसीलिए कवि ने स्वयं इसे मौलिक और अलौकिक काव्य कहकर सम्बोधित किया है :
"मृदुता का मोहक स्पर्शन/यह एक ऐसा/मौलिक और अलौकिक अमूर्त-दर्शक काव्य का/श्राव्य का सृजन हुआ,/इसका सृजक कौन है वह, कहाँ है,/क्यों मौन है वह ?/लाघव भाव वाला नरपुंगव,
नरपों का चरण हुआ!" (पृ. ४३६) डॉ. पुष्पलता जैन ('मूकमाटी' : अधुनातम आध्यात्मिक रूपक काव्य, तीर्थंकर, दिसम्बर, १९९०) का यह कथन अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है : “मौलिकता के आलोक में कि हिन्दी साहित्य में छायावादी कवि प्रसाद की 'कामायनी' (१९३५ ई.), युगचारण दिनकर की 'उर्वशी' (१९६१ ई.) तथा लोकमंगल के वंशीवादक सुमित्रानन्दन