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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 29 इसी प्रकार एक और प्राकृतिक वर्णन देखिए जहाँ कवि की मनोहारी कल्पना सार्थक शब्दों में झलकी है। उसे तरुवर छत्ता ताने दिखाई देते हैं और हरी-भरी धरती पर दरी बिछाई लगती है, फल-फूल मुस्काते और लतिकाएँ निमन्त्रित करती-सी लगती हैं। मानवीकरण का यह अच्छा उदाहरण है : "उत्तुंग-तम गगन चूमते/तरह-तरह के तरुवर/छत्ता ताने खड़े हैं, श्रम-हारिणी धरती है/हरी-भरी लसती है/धरती पर छाया ने दरी बिछाई है। फूलों-फलों पत्रों से लदे/लघु-गुरु गुल्म-गुच्छ/श्रान्त-श्थल पथिकों को मुस्कान-दान करते-से ।/आपाद-कण्ठ पादपों से लिपटी । ललित-लतिकायें वह/लगती हैं आगतों को बुलाती-लुभाती-सी, और/अविरल चलते पथिकों को/विश्राम लेने को कह रही हैं।” (पृ. ४२३) रसिक कवियों ने वसन्तादि ऋतुओं का वर्णन कामोद्दीपन की पृष्ठभूमि में किया है परन्तु आचार्यश्री ने अपनी आध्यात्मिकता का आरोपण प्रकृति के हर तत्त्वों के साथ पूरे मनोभाव से किया है । महाकाव्य का कोई भी कोना कवि की आध्यात्मिक दृष्टि से खाली नहीं रह पाया । उस दृष्टि में फिर भोग यहीं पड़े रहते हैं, और योगी आगे चला जाता है। वासना की गन्ध न उसके तन में है, न वसन में; वरन् माया से प्रभावित मन में है । इसलिए कवि देखता है : “वसन्त का भौतिक तन पड़ा है/निरा हो निष्क्रिय, निरावरण, गन्ध-शून्य शुष्क पुष्प-सा ।/मुख उसका थोड़ा-सा खुला है, मुख से बाहर निकली है रसना/थोड़ी-सी उलटी-पलटी, कुछ कह रही-सी लगती है-/भौतिक जीवन में रस ना! और/ रस"ना, ना "स"र/यानी वसन्त के पास सर नहीं था बुद्धि नहीं थी हिताहित परखने की,/यही कारण है कि वसन्त-सम जीवन पर/सन्तों का नाऽसर पड़ता है।” (पृ. १८०-१८१) साधु रूप का विश्लेषण करते समय कवि को न जाने कितनी उपमाएँ ध्यान में आती गईं। उन सभी उपमाओं से उसने साधु के विशुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत कर दिया है। प्रभातकालीन भानु (ज्ञान) की आभा से उसमें नयी उमंग, नयी तरंग, नयी ऊषा, नयी शरण, नयी खुशी, नयी गरीयसी आयी है। क्या-क्या नया रूप मिला है देखिए उसे । उसमें आपको नया सिंचन, नए चरण, नया राग, नए भाव, नया मंगल, नया जंगल, नया योग, नया करण आदि सब कुछ नया परिवर्तन लिए हुए साधु दिखाई देगा (पृ. २६३-२६४) । ऐसा ही साधु पाप-प्रपंच से मुक्त, पदयात्री, पाणिपात्री होता है । अपने प्रति वज्र-सम कठोर पर दूसरे के प्रति नवनीत जैसा मृदु होता है, यथा : “पाप-प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह/पवन-सम नि:संग/परतन्त्र-भीरु, दर्पण-सम दर्प से परीत/हरा-भरा फूला-फला/पादप-सम विनीत । नदी-प्रवाह-सम लक्ष्य की ओर/अरुक, अथक गतिमान ।” (पृ. ३००) भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से 'मूकमाटी' एक अभिनव विधा है। रूपक से भरे सारे पात्र अपनी-अपनी बात बड़ी खूबी से कहते चले जाते हैं और कथा आगे बढ़ती जाती है। कवि मानवता की स्वतन्त्रता का पोषक है, वह स्वतन्त्रता जिसमें आत्मज्ञान का दीपक जलता है और पर-पदार्थों की परतन्त्रता समाप्त हो जाती है, मानव-हृदय
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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