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28 :: मूकमाटी-मीमांसा
(पृ. १२२), किसलय-किस-लय (पृ. १४१), कसर-असर-सर (पृ. १५१), मर हम-मरहम (पृ. १७४), मैं दो गला-मैं दोगला (पृ. १७५), उरु उदर- गुरु-दरारदार (पृ. १७७), नदी-दीन (पृ. १७८), रसना-रस ना-नासर (पृ. १८०-१८१), जलधि-जड़धी (पृ. १९९), नारी-न अरि, न आरी (पृ. २०२), अबला-अब+ला (पृ. २०३), कुमारी-कु+मा+री (पृ. २०४), स्त्री- स्+त्री (पृ. २०५), सुता-सु+ता (पृ. २०५), दुहिता-दो+हिता (पृ. २०५), अंगना-अंग+ना (पृ. २०७), स्वप्न-स्व+प्+न (पृ. २९५),पर को-परखो (पृ. ३०३), नर तन-वर तन (पृ. ३३२), पायस ना-पाय सना (पृ. ३६४), श,स,ष (पृ. ३९७), वैखरी-वै-खरी, वै-खली-वैरी (पृ.४०२४०४), उरग-उर-ग(पृ.४३३), अपराधी-अपरा-धी (पृ. ४७४-४७७), पराभव-परा-भव (पृ. ३७१-३७२), कलशी-कल +सी (पृ.४१७), मदद-मद+द (पृ. ४५९) आदि । इन सारे शब्दों की व्याख्या में दर्शन और अध्यात्म का स्वर मुखरित हुआ है । उदाहरण के तौर पर 'उरग' की व्याख्या देखिए (पृ. ४३३)।
यह शब्दगत व्याख्या शब्दालंकार की पृष्ठभूमि में दर्शन के विविध अंगों को स्पष्ट करती दिखाई देती है । इसे हम सभंग-पदश्लेष और सभंगपदश्लेष वक्रोक्ति के आधार पर समझ सकते हैं जहाँ कवि ने श्लिष्ट शब्दों के अनेक टुकड़े कर अनेक अर्थों का विधान किया है जिसे हम उपर्युक्त अवसान, गदहा, आदमी आदि शब्दों में देख सकते हैं। इसी तरह वहाँ वर्ण विपर्यय अथवा विलोम के माध्यम से शब्दों के पीछे छिपा दर्शन भी समझा जा सकता है । स्व दया-याद (पृ. ३८), राही-हीरा (पृ. ५७) आदि। प्राकृतिक चित्रण
कवि शब्दों का कुशल खिलाड़ी तो है ही पर उसकी कल्पना-शक्ति भी बेजोड़ है । रूपक, उपमा, उत्पेक्षा जैसे कल्पनाप्रधान अलंकार और अनुप्रास, यमक जैसे शब्दालंकारों की छटा ने काव्य में कवित्व की सुन्दर स्थापना की है। ये अलंकार मात्र शब्द-साधना तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे एक स्वस्थ दर्शन प्रस्फुटित होता दिखाई देता है। काव्य का प्रारम्भिक भाग देखिए जिसमें प्रात:काल का वर्णन अनुपम कल्पना प्रसूत है :
“भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है माँ की मार्दव-गोद में,/मुख पर अंचल ले कर/करवटें ले रहा है। प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है
और/सिंदूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा -/ भाई है, भाई ! लज्जा के बूंघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को
पाँखुरियों की ओट देती है।” (पृ.१-२) माटी और कंकर का लम्बा संवाद है जिसमें जीवन का दर्शन प्रतिफलित हुआ है और राह, राही, हीरा, राख, खरा आदि शब्दों की मीमांसा भी कल्पनामण्डित पर सार्थकता लिए हुए है :
"तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर/जला-जला कर राख करना होगा/यतना घोर करना होगा/तभी कहीं चेतन - आत्मा खरा उतरेगा।/खरा शब्द भी स्वयं/विलोम रूप से कह रहा हैराख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ?/रा"ख"ख"रा" आशीष के हाथ उठाती-सी/माटी की मुद्रा/उदार समुद्रा।” (पृ. ५७)