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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 11 क्यों नहीं लिया ? बदले की भावना से वह आतंकवादी दल को निमन्त्रित करता है, जो सर्वत्र त्राहि-त्राहि मचा देता है। सेठ की रक्षा इस विपत्ति से प्राकृतिक शक्तियों और मानवेतर शक्तियों के सहयोग से होती है । आतंकवाद आज की विकट समस्या है। वह अलोकमांगलिक निजी और संकीर्ण स्वार्थ की तुष्टि के लिए भौतिक बल का सहारा लेता है। कभी-कभी कुछ सिद्धान्तों की आड़ में भी इस साँप का खेल देखा जा सकता है । खैर, सेठ का सात्त्विकताप्रद युद्ध आतंकवाद का हृदय परिवर्तित करता है और सेठ को भी सामाजिक दायित्व का बोध एक मच्छर से प्राप्त होता है। क्षुधा शान्ति के लिए एक मच्छर एवं खटमल उसका रक्त पी लेते हैं पर पूँजीवाद तो बिना भूख के चुपचाप समाज का रक्तपान ही नहीं, रक्त संग्रह बैंकों में करता है । ज़रूरत समझता है तो अपनी दानवता के तानाशाह का नग्न ताण्डव हो, इसलिए समुद्र में फिंकवा देता है। परिवर्तित हृदयवाला आतंकवाद अन्तत: पाषाण शिला पर आसीन वीतरागी मुनि की वन्दना करता है और कहता है कि संसार चक्र में पड़ा जीव सुख पाता है, पर क्षणिक और विनश्वर । कदाचित्, मरु मरीचिका की भाँति उसकी अप्राप्ति तक । प्राप्त होते ही उसकी दुःखरूपता उजागर हो जाती है । वह जिज्ञासा करता है कि अविनश्वर सुख का, दुःखोच्छेद का कोई मार्ग हो तो उसे भी बताया जाय । मुनि कहते हैं कि यह मार्ग श्रद्धा और विश्वास का मार्ग है। बिना सम्यक् श्रद्धा के इस मार्ग में पाँव रखना निरर्थक है । शास्त्र वचन पर विश्वास, आचार्य निर्दिष्ट मार्ग में आस्था और तदनुरूप कायिक और मानसिक अहिंसा आवरणीय कर्मों का नाश कर देगी। निरावरण आत्मचैतन्य सुख स्व-रूप में विभावों को हटाते हुए स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जायगा। इस प्रकार माटी का मूक भाव लक्षणा और व्यंजना से मुखर है। हमारे साहित्य के आचार्य कहते हैं कि काव्य भी शास्त्र की भाँति उपदेश देकर पाठक को व्युत्पन्न बनाता है, उसकी मति की जड़ता का विनाश करता है और बद्धि को स्वच्छ करता है ताकि उसमें उचित और अनुचित का विवेक हो सके और वह व्यवहार तथा परमार्थ में अपनी ऊर्ध्वमुखी, अपरिमेय सम्भावनाओं को चरितार्थ कर सके । अभिनव गुप्त, महिमभट्ट और मम्मट तथा हेमचन्द्राचार्य जैसे काव्यशास्त्रियों ने काव्य प्रयोजन का निरूपण करते हुए इस सत्य को दोहराया है। इसीलिए काव्य को कान्तासम्मितउपदेश कहा गया है । हर व्यक्ति शास्त्र नहीं पढ़ सकता, पर व्युत्पन्न सबको होना है । मृदु स्वभाववालों को व्युत्पन्न करने का मार्ग काव्यमार्ग ही है। फिर ऐसे जटिल और क्लेश ग्राह्य विचार को काव्यात्मक रूप वही दे सकता है जिसने उसे जीकर अपने व्यक्तित्व का अंग बना लिया हो। काव्य व्यक्तित्व की अभिव्यंजना ही तो है, पर ऐसे व्यक्तित्व की जो स्वपर-भावनाक्रान्त भूमिका में हो । आचार्य विद्यासागरजी विषय राग से रहित, पर आत्म राग से आपूरित हैं, अत: तदनुरूप सरस अभिव्यक्ति संवादों और वर्णनों के सहारे कर सकते हैं। विकल्प है कि यह शास्त्र है या एक काव्य है? क्या सत्य को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने में प्रतिस्पर्धी शब्द और अर्थ का सहभाव यहाँ कल्पना है और काव्योचित शब्दार्थ सामर्थ्य । पाठक पढ़ता है - सरस कथा, विचार गर्भ संवाद, आकर्षक वर्णन और पाता वही है जो शास्त्र प्रतिपाद्य है। भारतीय संस्कृति चाहे जो भी मार्ग पकड़े पर 'गन्तव्य' एक ही है- विभाव परित्याग पूर्वक स्वभाव में पूर्ण अवस्थान । एक ही गन्तव्य तक ले जाने वाला काव्य भी एक प्रस्थान भेद ही है । शास्त्र से काव्य का यही अन्तर है कि शास्त्र अनासक्त भाव से उपदेश देता है, काव्य जीवन के भीतर से उसे ध्वनित करता है, इसीलिए उसमें कुछ और' की आभा फूट पड़ती है। सम्पूर्ण रचना अभिव्यक्ति की भंगिमा से आपूरित है । वैभव के चाकचक्य के खिलाफ सीधी-सादी माटी की मूक कथा का चुनाव ही कितना आकर्षक है। जगह-जगह शब्दों की विस्मयावह व्युत्पत्तियाँ नितान्त चमत्कारकारिणी और हृदयावर्जक हैं । रचनाकार अपने समय का कण्ठ होता है । युग सम्पृक्ति से समय की समस्याओं- स्टार-वार, आतंकवाद, पूँजीवाद, परिग्रहीवृत्ति,विनाशकारी अहम् की गड़गड़ाहट, शक्ति द्वारा स्वर्ण-मुक्ता संग्रह प्रवृत्ति का
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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