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10 :: मूकमाटी-मीमांसा अनेकविध चिन्तन-गर्भ-काव्योचित रमणीय संवादों की श्रृंखला चलती है । साहित्य की हित-गर्भ व्युत्पत्ति और नव रसों का प्रासंगिक उल्लेख सर्जक की क्षमता के प्रकाशक हैं । अन्तत: शिल्पी से रौंदी जाकर, मृदुल-मौन मिट्टी चक्र पर चढ़कर कुम्भकार के द्वारा कुम्भ का आकार पाती है। तपन में तपकर वह पक्की हो जाती है।
तीसरे खण्ड में यही कथा आगे बढ़ती है । कर्मभूमि धरती की महिमा अगाध है । माटी और कुम्भ उसी की ऊर्ध्वगामी सात्त्विक सम्भावना के संवाहक हैं। इस धरती की परीक्षा इसलिए होती है कि वह मूल्यों को जीती है। मूल्यों के जीने की गहरी कीमत चुकानी पड़ती है । जल ही नहीं, ऊपर स्थित तपन और सागरस्थ बड़वानल-बड़वाग्नि जल को मथते और रूपान्तरित करते रहते हैं । जल कितना भी अग्नि के सम्पर्क में खौल जाय, किन्तु अग्निशामकता कभी नहीं छोड़ता। सभी एक दूसरे को रौंदते हैं-पृथिवी को जल, बादल; जल को तपन-बड़वाग्नि; तपन को राहु; राहु को पवन । धरती इन सबके बीच तपती है। वही सीप में जल को और बादल से झरी बूंद को नीचे वंश को, जल को मुक्ता में बदलकर ग्रहण करने की क्षमता देती है । बादल से गिरी मुक्ता - वर्षा को अनधिकारी शक्ति के रूप में लूटते हैं, अन्यायपूर्वक असन्तुलित अर्थव्यवस्था फैलाते हैं। ‘स्टार-वार' में उसकी परिणति होती है । रचनाकार इसी अन्यायी परिग्रहवृत्ति का शमन समर्पण से करता है। उसकी आँखें खुलती हैं। कुम्भकार को स्वस्थ होते देख कुम्भ कहता है :
"परीषह उपसर्ग के बिना कभी/स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि
न हुई, न होगी/कालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६) कुम्भकार कुम्भ के इस साधननिर्गत स्वर पर आश्वस्त हुआ और बोला :
“अब विश्वस्त हो चुका हूँ/पूर्णत: मैं, कि
पूरी सफलता आगे भी मिलेगी।" (पृ. २६६) इस पर कुम्भ कहता है :
"निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए।" (पृ. २६७) कुम्भ की ये पंक्तियाँ बहुत ही जानदार, असरदार सिद्ध हुई ।
- पूर्ववर्ती तीन खण्डों में जो कथासूत्र इधर-उधर मुड़ता हुआ शिथिल गति से बढ़ रहा था, वह चौथे खण्ड में आकर प्रगाढ़ और निर्वहणोन्मुख हो गया है । बात यह है कि क्लासिकल नाटकों की कथावस्तु जैसी संश्लिष्ट और फलोन्मुख कसावट लिए रहती है, महाकाव्यों में वर्णन तत्त्व के समावेश से वैसा सम्भव नहीं होता । यह बात महाकाव्य मात्र पर लागू होती है, केवल इसी में ऐसा हुआ है, सो नहीं। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने तो इस कृति की भूमिका में कह ही दिया कि चतुर्थ खण्ड अपने आप में एक खण्ड काव्य लगता है। इस खण्ड में कथासूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि कुम्भकार अवा में परिपक्व कुम्भों को हर्षोल्लास से बाहर निकालता है। नगर सेठ स्वप्नानुभव से प्रेरित होकर सेवक द्वारा घट मँगवाता है और स्वस्तिक बनाकर उसे सजाता है। श्रद्धालु नगर सेठ जलपूर्ण घट साधु के आहारदान के सन्दर्भ में समर्पित करता है । फलतः सात्त्विकता पूर्ण हृदय में चिरबन्धन से मुक्त होने की कामना जन्म लेती है । पूर्ववर्ती खण्डों की तरह बात-बात में से बात निकालने की वृत्ति यहाँ भी नि:शेष नहीं है। अनेक सत् चर्या के प्रसंग उठाए गए हैं। मुख्य बात यह है कि मत्तिका घट को मिले इस महत्त्व पर स्वर्ण घट का अहम् फुत्कार करता है कि उसे नायक ने सम्मानार्थ उपयोग में