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________________ 'मूकमाटी' का काव्यरूप एवं उसका संस्कृत महाकाव्यों से तुलनात्मक अनुशीलन आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी 'मूकमाटी' : आचार्य श्री विद्यासागर आलोच्य कृति से आद्यन्त गुज़र गया हूँ । कवित्व और चिन्तन का मणि - कांचन योग हुआ है इसमें । काव्य रूप दृष्टि से इसे प्रबन्ध काव्य कहा जायगा । कारण, कथा का क्षीणकाय सूत्र पूर्ववर्ती खण्डों में भी विद्यमान है । अन्तिम खण्ड में वह अवश्य अधिक मुखर हुआ है । सम्पूर्ण मृत्तिका - घट की आत्मकथा प्रतीकात्मक है । दोषावृत माटी माता धरा से निवेदन करती है कि वह मुक्ति - पथ का निर्देश करे, यात्रा के लिए अपेक्षित पाथेय के साथ । बगल में सरिता सागर की ओर उन्मुख अपनी रौ में चली जा रही है। वह अपनी एकतान-वृत्ति क्यों भंग करे ? माता तो माता ठहरी । वह आश्वासन देती हुई कहती है कि संसार का हर प्राणी अपरिमेय सम्भावनाओं का आगार है, निसर्गत: सर्वविध ऐश्वर्य से सम्पन्न है । पर अनादि दुर्वासनावश विभाव से उसका स्वभाव ढँक गया है। इसी कुसंग का फल उसे भोगना पड़ रहा है। प्रसन्नता इस बात की है कि बेटी माटी इस आवरण की ओर से सचेत है । धरती कहती है : " असत्य की सही पहचान ही / सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९) I पर इतना ही सब कुछ नहीं है । सबसे पहले इस सत्य का आघ्राण लेने के लिए आस्था की नासा अनावृत करनी होगी, फिर : "साधना के साँचे में / स्वयं को ढालना होगा सहर्ष ! ... हाँ! हाँ !! ••• इसे / खेल नहीं समझना ... यह सुदीर्घ कालीन / परिश्रम का फल है, बेटा !" (पृ. १०-११ ) यह रास्ता बड़ा ही पिच्छिल है । निरन्तर अभ्यास के बाद भी फिसलता ही है, स्खलन होता ही है, बड़ी प्रतिकूलताएँ आती हैं पर आस्थावान् पुरुष के लिए यह सब वरदान है - अभिशाप नहीं । अभूतपूर्व उद्बोधन से बेटी मी आश्वस्त होती है। माँ का उत्साह बढ़ता है और वह ढालने वाले कुम्भकार के प्रति सर्वात्मना समर्पित होने की आज्ञा देती है। प्रभात आता है अन्धकार के बाद । कुम्भकार - धरती का भाग्य-विधाता पधारता है। माटी अपने को सर्वात्मना शिल्पी को समर्पित कर देती है। कुम्भकार सर्जक है और सर्जक वही हो सकता है जिसने अहम् का विसर्जन कर दिया है। जुड़ेगा वही जो मुड़ेगा । माटी बोरी में भरी जाती है, गधे पर लादी जाती है, उपाश्रम में लाई जाती है । शिल्पी बालटी कूप में डालता है, जल निकालता है। मिट्टी और जल दोनों छाने जाते हैं। मिट्टी का सांकर्य विगलित होता है, उसमें शुद्धता आती है और माटी का अन्तस् निर्मल और सरल हो जाता है। कथा के प्रत्येक उपकरण प्रतीक बन जाते हैं सच्चिन्तन के प्रभावी सम्प्रेषण के । इस प्रकार पहला खण्ड पूर्वारम्भ है । दूसरे खण्ड में शिल्पी का कार्य आरम्भ होता है। वह कुंकुम - सम मृदु माटी में छना निर्मल जल मिलाता है और अलगाव से लगाव की ओर एकीकरण का आविर्भाव आरम्भ होता है। इस स्थिति में पुन: माटी और काँटे की बात चलती रहती है। माटी खोदी जाते समय एक काँटा (शूल) क्षत-विक्षत होता है । माटी, फूल की तुलना में उस आहत शूल का पक्ष लेती है और बड़ी उपदेशप्रद बातें कह जाती है जिससे शूल से बदले की भावना निकल जाए। शूल भी अपने पक्ष में बहुत कुछ कह जाता है। शूल और माटी का संवाद सुनते ही शिल्पी बोल उठता है : " खम्मामि, खमंतु मे । " इस प्रकार
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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