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________________ 12 :: मूकमाटी-मीमांसा साक्षात्कार और उसका अपने ढंग से पाया गया निदान आदि उसकी रचना में मुखर हुआ है। अन्यथा, रचनाकार की क्या विवशता है, ऐसी पीड़ा से होकर गुज़रने की ? आज हम आतंकवाद के नाश का एकमात्र मार्ग दमन मानते हैं। वीतरागी मुनि से साधना की अगाध क्षमता की ही बात सुन सकते हैं। दबाब से नहीं, सुधार स्व-भाव से लाया जा सकता है, यदि उसे स्थायी बनाना है । सेठ पूँजीवादी और परिग्रही है, स्वर्णकलश आतंकवाद की जड़ में है, भीतर से इन्हें बदलने की ज़रूरत है। बदलाव ही अस्वास्थ्य से स्वास्थ्य की ओर ले जाता है एवं विभाव से स्व-भाव में प्रतिष्ठापित करता है। एक मुनि से हम और क्या आशा कर सकते हैं ? वह निषेधात्मक की अपेक्षा साफ़-साफ़ विधेयात्मक ढंग अपनाता है। जहाँ तक भारतीय प्रबन्ध काव्य परम्परा में इसके स्थान की बात है - यह उनके मध्य आता है जो शास्त्रकाव्य हैं या बहुत कहें तो उभयकाव्य हैं। राजशेखर ने काव्य के भेद बताते हुए अपनी 'काव्य मीमांसा' में तीन भेदों की बात कही है। काव्य-काव्य, शास्त्र-काव्य और उभयकाव्य । रीतिकालीन काव्य सेक्युलर पोएट्री है- ऐहिक काव्य है और भक्तिधारा के काव्य- आयुष्मिक काव्य हैं। 'रामचरितमानस', 'पदमावत', 'विज्ञान-गीता' प्रभृति प्रबन्ध काव्य आयुष्मिक प्रबन्ध काव्य हैं जिनके रचयिताओं ने काव्य व्यपदेशोचित सौन्दर्य के निमित्त पारम्परिक चेतना का संस्पर्श आवश्यक माना है । आधुनिक काल में भी दार्शनिक काव्य लिखे गए हैं- 'जयभारत', 'कामायनी', 'लोकायतन', 'अनंग', 'महाभारती', 'ऋतम्भरा', 'कनुप्रिया' आदि । इन प्रबन्धों की कथावस्तु में कहीं न कहीं दार्शनिक पुट विद्यमान है । इतना अवश्य है कि इनमें कहीं वैष्णव, कहीं तसव्वुफ़, कहीं वेदान्त, कहीं प्रवृत्ति धर्म, कहीं शैवागम, कहीं अरविन्द दर्शन, कहीं सहजिया वैष्णव दर्शन की छाप है। 'मूकमाटी' पर जैन दर्शन की विचारधारा की छाप है, पर इतने पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग नहीं है कि वह सामान्य पाठक को रसास्वाद में कोई गतिरोध पैदा करे । दार्शनिक चेतना से आक्रान्त होने पर भी अन्योक्ति पद्धति इतनी काव्योचित है कि किसी भी मानवीय हितवाली धारा के पाठक को यह कृति प्रभावित करती है। जहाँ तक उपादेयता का सम्बन्ध है, मैंने पहले ही कहा है कि काव्य कान्तासम्मित उपदेश में अपना वैशिष्ट्य रखता है । रचनाकार अपने समय और देश की नब्ज़ पहचानता है और दुःख का निदान कर उसका उचित समाधान भी देता है। कुम्भ अपने जीवन वृत्त के माध्यम से विभावाच्छादित मानव को स्व-भाव से प्रतिष्ठित होकर स्वयं और लोक के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कैसे किया जाय, यह बताता है और आज के स्वार्थ तथा अहंकेन्द्रित युग में एक प्रशस्त मार्ग दिखाता है। 'मूकमाटी' का काव्यरूप 'मूकमाटी' का आकलन करते समय यह तथ्य नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि यह एक विशेष जीवनदर्शन को निष्ठा और आस्था के साथ जीने वाले सन्त की काव्यात्मक कृति है । साहित्यकार आदि से अन्त तक साहित्यकार है जो कि वह भी रचनाकार है और रचनाकार की भी हमारी कल्पनास्थित छवि सन्त की ही है। फिर भी वे पहले एक सन्त हैं और फिर साहित्यकार और दूसरी आद्यन्त साहित्यकार है और उसकी चेतना - सर्जक चेतना में सन्त जनोचित इन्सानियत के संस्कार हैं। 'कर्मभूमि' और 'रंगभूमि' की सृष्टि करने वाले साहित्यकार में इन्सानियत को चरितार्थ करने वाले सारे नैतिक आदर्श मुखर हैं पर वह गोस्वामी तुलसीदास से थोड़ा हटकर है । यद्यपि प्रसिद्ध मार्क्सवादी रामविलास शर्मा गोस्वामीजी की भक्ति चेतना को उच्चकोटि का मानवतावाद ही कहते हैं । निश्चय ही ऐसा कहते समय उनकी दृष्टि में गोस्वामीजी का आध्यात्मिक वर्णाश्रम व्यवस्थावादी परलोकवादी वाला रूप नहीं है। शुद्ध साहित्य की परिभाषा देने वाला कुन्तक काव्य के लिए केवल 'भणिति विचित्र' की शर्त मानता है, भले ही उसे खोदते-खोदते नैतिकता की सुगन्ध भी उभरने लगे। पर गोस्वामीजी जैसा सन्त जब काव्य की परिभाषा देता है तो उसका सन्तत्व, उसकी अध्यात्मपरकता सर्वोपरि होती है। वह कहता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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